नारद जी बोले: ऐसा कहकर भगवान विष्णु जी मछली का रूप धारण कर लिया और आकाश से जल में गिर पड़े। उस समय विंध्याचल पर्वत पर तप कर रहे महर्षि कश्यप अपनी अंजुलि में जल भर कर खड़े थे। भगवान श्री विष्णु जी उनकी अंजुलि में जा कर गिर पड़े। महर्षि कश्यप को मछली पर दया आ गई और उन्होंने उसे अपने कमण्डल में रख लिया। मछली जब थोड़ी बड़ी हुई तो महर्षि कश्यप ने उसे कुएं में डाल दिया। जब वह मछली में भी ना समा सकी तो महर्षि ने उसे तालाब में डाल दिया। जब तालाब भी मछली के लिए छोटा पड़ने लगा तो महर्षि कश्यप ने उसे समुद्र में डाल दिया।
वह मछली समुद्र में जाने के बाद और भी ज्यादा बड़ी होने लगी। फिर मत्स्यरूपी भगवान श्री विष्णु जी ने इस शंखासुर का वध किया और शंखासुर को हाथ में लेकर बद्रीवन में आ गए वहां पर उन्होंने सभी ऋषियों को बुलाकर इस प्रकार आदेश दिया, हे मुनीश्वरों! तुम जल के भीतर बिखरे हुए वेदमन्त्रों की खोज करो और जितनी जल्दी हो सके उन्हें सागर के जल से बाहर निकाल लाओ, तब तक मैं देवताओं के साथ प्रयाग में ठहरता हूं। तब उन तपोबल सम्पन्न महर्षियों ने यज्ञ और बीजों सहित संपूर्ण वेद मंत्रों का उद्धार किया। उनमें से जितने मंत्र जिस ऋषि ने उपलब्ध किए वही उन बीज मंत्रों का उस दिन से ऋषि माना जाने लगा।उसके पश्चात् सब ऋषि एकत्र हो कर प्रयाग में गए और पहुंच कर उन्होंने ब्रह्माजी सहित भगवान श्री विष्णु जी को प्राप्त हुए सभी वेद मंत्र समर्पित कर दिए।
वेदों को पाकर ब्रह्माजी बहुत प्रसन्न हुए, उन्होंने सभी देवताओं और ऋषियों सहित प्रयाग में अश्वमेघ यज्ञ किया। यज्ञ समाप्त होने पर सब देवताओं ने भगवान से निवेदन किया कि हे देवाधिदेव जगन्नाथ! इस स्थान पर ब्रह्माजी ने खोए हुए वेदों को पुनः प्राप्त किया है और हमने भी यहां आपके प्रसाद से यज्ञभाग पाए हैं। अतः यह स्थान पृथ्वी पर सबसे श्रेष्ठ, पुण्य की वृद्धि करने वाला एवं भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाला हो, साथ ही यह समय भी महापुण्यमय और ब्रह्मघाती आदि महापापियों की भी शुद्धि करने वाला हो तथा यहां दिए हुए दान को अक्षय बना देने वाला भी हो, आप यही वर दीजिए। भगवान श्री विष्णु जी बोले: देवताओं! तुमने जो कुछ भी कहा है वह मुझे स्वीकार है, तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो। आज से यह स्थान ब्रह्मश्रेत्र के नाम से प्रसिद्ध होगा। सूर्यवंश में उत्पन्न राजा भगीरथ यहां गंगा को लायेंगे और वह यहां सूर्यकन्या यमुना से मिलेगी। ब्रह्माजी सहित तुम सब देवता मेरे साथ यहां निवास करो।
भगवान श्री विष्णु जी ने कहा कि आज से यह स्थान तीर्थराज के नाम से प्रसिद्ध होगा। तीर्थराज के दर्शन मात्र से तत्काल सब पाप नष्ट हो जाएंगे। जब सूर्य मकर राशि में स्थित होंगे उस समय यहां स्नान करने वाले मनुष्यों से सब पापों का यह तीर्थ नाश करेगा। यह काल भी मनुष्यों के लिए सदा महान पुण्य फल देने वाला होगा। माघ में सूर्य के मकर राशि में स्थित होने पर यहां स्नान करने से सालोक्य आदि फल प्राप्त होंगे। देवाधिदेव भगवान विष्णु जी सभी देवताओं से ऐसा कहकर ब्रह्माजी के साथ वहां से अंतर्ध्यान हो गए। तत्पश्चात इंद्रादि देवता भी अपने अंश से प्रयाग में रहते हुए वहां से अंतर्ध्यान हो गए।
अर्थात् जो मनुष्य कार्तिक मास में तुलसी जी की जड़ के समीप श्रीहरि जी का पूजन करता है वह इस लोक में संपूर्ण सुखों का उपभोग कर के अन्त में बैकुंठ धाम को जाता है।