एक बार नैमिषारण्य तीर्थ में श्री सूत जी ने अठ्ठासी हजार ऋषियों से कहा: अब मैं आपको कार्तिक मास की कथा विस्तारपूर्वक सुनता हूं, जिसको सुनने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और उसको अन्त समय में बैकुंठ धाम की प्राप्ति होती है।
सूतजी ने कहा! श्रीकृष्ण जी से अनुमति लेकर देवर्षि नारद के जाने के बाद सत्यभामा प्रसन्न हो कर भगवान श्री कृष्ण से बोलीं! हे प्रभु! मैं धन्य हो गई, मेरा जन्म सफल हो गया, मुझ जैसी त्रैलोक्य सुन्दरी के जन्मदाता भी धन्य हैं, जो आपकी सोलह हजार रानियों के बीच में आपकी प्यारी रानी बनी। मैंने आपके साथ नारद जी को वह कल्पवृक्ष आदि पुरुष विधिपूर्वक दान में दिया, परन्तु वही कल्पवृक्ष मेरे घर में लहराया करता है। यह बात मृत्युलोक में किसी भी स्त्री को मालूम नहीं है। हे त्रिलोकीनाथ! आप कृपा कर के मुझे कार्तिक मास माहात्म्य की कथा विस्तारपूर्वक से कहिए जिसको सुनकर मेरा हित हो और जिसको करने से कल्पपर्यन्त आप मुझसे विमुख ना हों।
सूतजी बोले! सत्यभामा के ऐसे वचन सुनकर भगवान श्री कृष्ण ने हंसते हुए सत्यभामा के हाथ को पकड़ा और अपने सेवकों को वहीं रुकने के लिए बोलकर सत्यभामा को कल्पवृक्ष के नीचे ले गए और फिर हंसकर बोले: हे प्रिये! सोलह हजार रानियों में से तुम मुझे मेरे प्राणों से ज्यादा प्यारी हो। तुम्हारे लिए मैंने इन्द्र तथा अन्य सभी देवताओं का विरोध किया था। हे कांते! जो बात तुमने मुझसे पूछी है, उसे सुनो! एक दिन मैने तुम्हारी इच्छा पूर्ति के लिए गरुड़ पर सवार होकर इंद्रलोक जाकर इन्द्र से कल्पवृक्ष मांगा। इन्द्र के मना करने पर इन्द्र तथा गरुड़ में घोर संग्राम हुआ और गौ लोक में भी गरुड़ जी ने गौओं से युद्ध किया। गरुड़ की चोंच की चोट से उनके कान एवं पूंछ कटकर गिरने लगे जिससे तीन वस्तुएं उत्पन्न हुईं। कान से तम्बाकू, पूंछ से गोभी और रक्त से मेंहदी बनी। इन तीनों का प्रयोग करने वाले को मोक्ष नहीं मिलता तब गौओं ने भी क्रोधित होकर गरुड़ पर वार किया जिसकी वजह से उनके तीन पंख टूटकर गिर गए। इनके पहले पंख से नीलकंठ, दूसरे से मोर और तीसरे से चकवा–चकवी उत्पन्न हुए। हे प्रिये! इन तीनों का दर्शन करने से शुभ लाभ प्राप्त होता है।
यह सुनकर सत्यभामा ने कहा कि हे प्रभु! कृपा कर के मुझे मेरे पूर्व जन्म के विषय में बताइए। मैने अपने पूर्वजन्म में कौन से दान, व्रत और जप नहीं किए हैं। मेरे जन्मदाता कौन थे, मेरा स्वभाव कैसा था। मैंने अपने पूर्वजन्म में ऐसा कौन सा पुण्य किया था जिसकी वजह से इस जनम में मैं आपकी अर्द्धांगिनी बनी। श्रीकृष्ण ने कहा: हे प्रिये! अब मैं तुम्हे तुम्हारे द्वारा पूर्व जन्म में किए गए पुण्य कर्मों को विस्तारपूर्वक कहता हूं, उसे सुनो! पूर्व समय में सतयुग के अंत में मायापुरी में अत्रि –गोत्र में वेद–वेदान्त का ज्ञाता देवशर्मा नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था। देवशर्मा प्रतिदिन अतिथियों की सेवा, हवन और सूर्य भगवान का पूजन किया करता था। देवशर्मा सूर्य के समान तेजस्वी था। वृद्धावस्था में उसे एक गुणवती नामक कन्या की प्राप्ति हुई। उस पुत्रहीन ब्राह्मण ने अपनी कन्या का विवाह अपने ही शिष्य के साथ कर दिया। शिष्य का नाम चन्द्र था। देवशर्मा चन्द्र को अपने पुत्र के तरह प्यार करता था, और चन्द्र भी उसे अपने पिता की तरह आदर करता था।
एक दिन की बात है, वह दोनों कुश व समिधा लेने के लिए जंगल में गए थे। जब वह दोनों हिमालय की तलहटी में भ्रमण कर रहे थे तब उन्हें वहां एक राक्षस आता हुआ दिखाई दिया। उस राक्षस को आता हुआ देखकर भय के कारण उन दोनों के अंग शिथिल हो गए और वह दोनों वहां से भाग नहीं पाए। तब उस राक्षस ने उन दोनों को वहीं पर मार डाला। चूंकि वह दोनों धर्मात्मा थे इसलिए मेरे पार्षद उन्हें मेरे पास बैकुंठ धाम ले आए। उन दोनों द्वारा आजीवन सूर्य भगवान की पूजा किए जाने के कारण मैं उन दोनों पर बहुत प्रसन्न हुआ।
गणेश जी, शिव जी, सूर्य व देवी इन सबकी पूजा करने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। मैं एक होता हुआ भी काल और कर्मों के भेद से पांच प्रकार का होता हूं। जैसे–एक देवदत्त, पिता, भ्राता आदि नामों से पुकारा जाता हूं। जब वे दोनों विमान पर सवार होकर सूर्य के समान तेजस्वी, रूपवान, चन्दन की माला धारण किए हुए मेरे भवन में आए और दिव्य भोगों को भोगने लगे।