अन्नपूर्णा माता का व्रत मार्गशीर्ष मास में कृष्ण पक्ष की पंचमी से प्रारम्भ होता है और मार्गशीर्ष षष्ठी को समाप्त होता है। यह व्रत सोलह दिनों का होता है। एक समय की बात है। काशी नगरी में धनंजय नाम का एक व्यक्ति रहता था उसकी पत्नी का नाम सुलक्षणा था। सुलक्षणा को बाकी सारे सुख प्राप्त थे, परिवार के साथ बहुत सुखी थी लेकिन उसे एक ही दुःख था कि वह निर्धन थी। यह दुःख उसे हरदम सताता रहता था। एक दिन सुलक्षणा अपने पति से बोली कि हे स्वामी! आप कुछ उद्यम करो तो काम चले। इस प्रकार से कब तक चलेगा।
इस प्रकार सुलक्षणा की बात धनंजय के मन में बैठ गई। वह उसी दिन से विश्वनाथ महादेव जी की तपस्या करने और उनको प्रसन्न करने के बैठ गया और कहने लगा कि हे देवाधिदेव विशेश्वर! मुझे पूजा–पाठ का कुछ भी ज्ञान नहीं है, मुझे कुछ भी नहीं आता है मैं केवल आपके भरोसे पर ही बैठा हूं। इस प्रकार देवाधिदेव विशेश्वर जी से विनती करने के बाद धनंजय दो–तीन तक वहीं पर भूखा–प्यासा बैठा रहा। उसकी साधना देखकर भगवान शंकर जी ने उसके कान में अन्नपूर्णा! अन्नपूर्णा! अन्नपूर्णा! यह शब्द तीन बार कहा। यह सुनकर धनंजय सोच में पड़ गया कि यह कौन, और क्या कह गया? तभी उसकी नजर मन्दिर से आते हुए ब्राह्मणों पर पड़ी तो वह उनसे पूछने लगा कि हे ब्राह्मण देवता! कृपा कर के मुझे बताइए कि यह अन्नपूर्णा कौन हैं? इसपर ब्राह्मणों ने कहा कि तू अन्न छोड़ के बैठा है इसलिए तुझे अन्न की बात ही सूझती है, जा घर जाकर अन्न ग्रहण कर ले।
ब्राह्मणों की बात सुनकर धनंजय घर चला गया और सुलक्षणा से सारी बात बताई। उसकी बात सुनकर सुलक्षणा बोली कि हे नाथ! आप चिन्ता मत करो, आपको यह मंत्र स्वयं शंकर जी ने दिया है तो वह खुद ही इसका खुलासा भी करेंगे। आप फिर से जाकर उनकी आराधना कीजिए। सुलक्षणा की बात मानकर धनंजय फिर से जैसा का तैसा पूजा में बैठ गया। रात्रि में भगवान शंकर जी ने उसे आज्ञा दी कि– तू पूर्व दिशा में चला जा। भगवान शंकर जी की बात सुनकर धनंजय पूर्व दिशा में चल पड़ा। वह अन्नपूर्णा का नाम जपता जाता और रास्ते में फल खाता, झरनों का पानी पीता जाता। इस प्रकार कितने दिनों तक वह चलता रहा। चलते–चलते उसे वहां चांदी सी चमकती वन की शोभा देखने को मिली सुन्दर सरोवर और उसके किनारे कितनी ही अप्सराएं झुण्ड बनाए बैठी थीं। एक कथा सुनतीं और फिर सब मिलकर मां अन्नपूर्णा! इस प्रकार बार–बार कहती थीं।
यह अगहन (मार्गशीर्ष) मास की उजियारी रात थी और आज से ही व्रत का आरम्भ था। धनंजय जिस शब्द की खोज में निकला था वह उसे वहां सुनने को मिला। धनंजय ने उनके पास जाकर पूछा कि हे देवियों! आप सब यह क्या कर रही हैं? तब उन सबने कहा कि हम सब मां अन्नपूर्णा का व्रत करती हैं। धनंजय ने फिर पूछा कि मां अन्नपूर्णा का व्रत और पूजा करने से क्या होता है? यह किसी ने किया भी है? इसे कब करना चाहिए? इसकी पूजा विधि क्या है? आप लोग कृपा करके मुझे भी विस्तार से बताइए।
धनंजय की बात सुनकर वे अप्सराएं कहने लगीं कि इस व्रत को कोई भी कर सकता है। इक्कीस दिन तक के लिए इक्कीस गांठ का सूत लेना चाहिए। इक्कीस दिन यदि ना बनें तो एक दिन उपवास करें, और यदि यह भी ना हो सके तो केवल कथा सुनकर प्रसाद ग्रहण करें। निराहार रहकर कथा कहें, कथा सुनने वाला कोई ना मिले तो पीपल के पत्तों को रखकर सुपारी या घृत कुमारी (गुवारपाठ) वृक्ष को सामने कर दीपक को साक्षी कर सूर्य, गाय, तुलसी या महादेव जी के सामने कथा कहे। बिना कथा सुनाए मुंह में दाना ना डालें। यदि भूलवश कुछ पड़ जाए तो एक दिवस फिर उपवास करें, व्रत के दिन क्रोध ना करें और ना ही झूठ बोलें।
धनंजय ने पूछा कि हे देवियों! इस व्रत को करने से क्या होगा? इस पर वे अप्सराएं कहने लगीं कि –
इसके करने से अंधों को नेत्र मिले, लूलों को हाथ मिले, निर्धन के घर धन आए, बाँझिन को संतान मिले, मूर्ख को विद्या आए, जो जिस कामना से व्रत करे मां उसकी मनोकामना पूरी करती हैं। धनंजय कहने लगा कि हे देवियों! मेरे पास भी धन नहीं है, विद्या नहीं है, मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, मैं तो एक दुखिया ब्राह्मण हूं, क्या मुझे इस व्रत का सूत दोगी?
अप्सराओं ने कहा कि हां भाई! तेरा कल्याण हो, हम तुम्हें अवश्य सूत देंगे, ले इस व्रत का मंगलसूत्र ले। धनंजय ने व्रत किया। जब उसका व्रत पूरा हुआ, तभी सरोवर में से इक्कीस खण्ड की सुवर्ण सीढ़ी हीरा–मोती जड़ी हुई प्रकट हुई। धनंजय जय अन्नपूर्णा, जय अन्नपूर्णा कहता जाता था। इस प्रकार वह कितनी ही सीढ़ियां उतर गया तो क्या देखता है कि करोड़ों सूर्य से प्रकाशमान मां अन्नपूर्णा का मन्दिर है, उसके सामने सुवर्ण सिंहासन पर माता अन्नपूर्णा विराजमान हैं। उनके सामने भिक्षा हेतु भगवान शंकर खड़े हैं। देवांगनाए चंवर डुला रही हैं और कितनी ही हथियार बांधे पहरा दे रही हैं।
धनंजय दौड़कर माता अन्नपूर्णा के पैरों में गिर गया। देवी उसके मन का क्लेश जान गईं। धनंजय कहने लगा कि हे माता! आप तो अंतर्यामी हो। आपको अपनी दशा क्या बताऊं? माता बोलीं– मेरा व्रत किया है, जा संसार में तेरा सत्कार होगा। माता अन्नपूर्णा ने धनंजय की जिव्हा पर बीज मंत्र लिख दिया। अब तो धनंजय के रोम–रोम में विद्या प्रकट हो गईं। इतने में वह देखता क्या है कि वह काशी विश्वनाथ के मन्दिर में खड़ा है। मां अन्नपूर्णा का वरदान लेकर धनंजय घर आया। सुलक्षणा को सब बात बताई। माता अन्नपूर्णा की कृपा से उसके घर में धन की कोई कमी न रही। उसके नाते–रिश्तेदारों में उसका गुणगान होने लगा। जैसे शहद के छत्ते में मधु–माखियां जमा होती हैं उसी प्रकार उसके सगे–सम्बन्धी आकर उसकी बड़ाई करने लगे। कुछ लोग उसको कहने लगे कि इतना धन, इतनी संपत्ति होने का क्या फायदा जब इसको भोगने वाला कोई नहीं है? सुलक्षणा से तुम्हे कोई सन्तान नहीं है इसलिए तुम दूसरा विवाह कर लो।
धनंजय को ना चाहते हुए भी दूसरा विवाह करना पड़ा, और सुलक्षणा को सौतन का दुख उठाना पड़ा। इस प्रकार दिन बीतते गए और फिर अगहन मास आ गया। सुलक्षणा ने धनंजय से कहलवाया कि हम मां अन्नपूर्णा के व्रत करने के प्रभाव से ही सुखी हुए हैं अतः हमें इस व्रत को छोड़ना नहीं चाहिए। यह मां अन्नपूर्णा का प्रताप है कि हम इतने सुखी और संपन्न हैं। सुलक्षणा की बात सुनकर धनंजय उसके यहां आया और व्रत में बैठ गया। धनंजय की दूसरी पत्नी को इस बात की और व्रत की कोई खबर नहीं थी। वह धनंजय के आने की राह देख रही थी। दिन बीतते गए और व्रत को पूर्ण होने में तीन दिवस बाकी थे कि धनंजय की दूसरी पत्नी को पता चल गया कि धनंजय अपनी पहली पत्नी के पास है। उसके मन में ईर्ष्या की भावना दहकने लगी थी। वह फौरन सुलक्षणा के घर आ पहुंची और वहां पहुंचकर उसने भगदड़ मचा दी और धनंजन को अपने साथ अपने घर ले आई।
दूसरी पत्नी के साथ आने के बाद धनंजय को थोड़ी देर के लिए नींद आ गई, इसी समय उसकी दूसरी पत्नी ने उसके व्रत का सूत तोड़कर आग में फेंक दिया। उसके ऐसा करने से मां अन्नपूर्णा का क्रोध जाग गया। उसके घर में अपने आप ही आग लग गई और सब कुछ जलकर राख हो गया। सुलक्षणा को जैसे ही यह जानकारी मिली वह तुरन्त ही धनंजय को अपने घर ले आई और धनंजय की दूसरी पत्नी नाराज हो कर अपने पिता के घर चली गई। पति को परमेश्वर मानने वाली सुलक्षणा अपने पति से बोली कि हे नाथ! आप घबराना नहीं। माता जी की कृपा आलौकिक होती है, पुत्र भले ही कुपुत्र हो जाता है लेकिन माता कभी कुमाता नहीं होती। अतः अब आप दोबारा श्रद्धा और भक्ति के साथ माता की पूजा–आराधना शुरू कीजिए। वे जरूर हमारा कल्याण करेंगी। सुलक्षणा की बात सुनकर धनंजय फिर से मां अन्नपूर्णा की पूजा–अर्चना करने लगा। उसके बाद फिर वहीं सरोवर सीढ़ी प्रकट हुई, तो वह उसमें मां अन्नपूर्णा! कहकर उतर गया और वहां पहुंचकर मां अन्नपूर्णा के चरणों में बैठकर रुदन करने लगा।
माता अन्नपूर्णा प्रसन्न हो कर बोलीं कि ले यह मेरी स्वर्ण मूर्ति ले जा, इसकी पूजा करना तू फिर से सुखी हो जाएगा। जा मैं तुझे आशीर्वाद देती हूं। तेरी पत्नी सुलक्षणा ने श्रद्धा से मेरा व्रत और पूजन किया है, मैने उसे पुत्र दिया है। यह कहकर माता अंतर्ध्यान हो गईं।धनंजय ने आंखें खोलीं तो खुद को काशी विश्वनाथ के मन्दिर में खड़ा पाया। वहां से फिर वह खुशी–खुशी अपने घर को लौट आया। कुछ समय बाद सुलक्षणा ने एक पुत्र को जन्म दिया। सारे गांव में आश्चर्य की लहर दौड़ गई। उसके बाद उसी गांव के निः सन्तान सेठ ने भी मां अन्नपूर्णा की पूजा और व्रत किया जिसके प्रभाव से उसे भी सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई। उस सेठ ने माता अन्नपूर्णा का मन्दिर बनवाया, जिसमें मां अन्नपूर्णा धूमधाम से पधारीं। फिर यज्ञ किया गया और धनंजय को मन्दिर के आचार्य का पद दे दिया गया। जीविका के लिए मन्दिर की दक्षिणा और उनके रहने के लिए बहुत ही सुन्दर सा भवन दिया गया। धनंजय अपनी पत्नी और पुत्र सहित वहां रहने लगा। माता जी के चढ़ावे से भरपूर आमदनी होने लगी। उसकी दूसरी पत्नी के घर में डाका पड़ गया और उसका सारा धन लुट गया। वे सब भीख मांगकर अपना पेट भरने लगे। जब सुलक्षणा को यह बात पता चली तो उसने उन्हें अपने पास बुला लिया और उन्हें अलग घर में रख दिया और उनके अन्न–वस्त्र आदि का प्रबन्ध करा दिया।
धनंजय, सुलक्षणा और उसका पुत्र माता अन्नपूर्णा की कृपा से आनंद के साथ रहने लगे। माता जी ने जैसे इनके भंडार भरे वैसे ही सबके भंडार भरें।
माता अन्नपूर्णा की जय हो!