राजा के इस प्रकार के वचन सुनकर तपस्वी कहने लगे कि हे राजन् ! अभी भगवान सूर्य के उदय होने का समय है इसलिए यह समय आपके स्नान करने का है कथा सुनने का नहीं। अतः इस समय आप अपने घर को जाइए और अपने गुरु श्री वशिष्ठ जी से इस माहात्म्य को सुनिए। इतना कहकर तपस्वी सरोवर में स्नान करने के लिए चले गए और राजा ने भी सरोवर में स्नान किया और उसके बाद अपने राज्य को लौट गए। महल में पहुंच कर राजा ने तपस्वी की सारी बात रानी को कह सुनाई। उसके बाद सूत जी कहने लगे कि हे महाराज! उसके बाद राजा ने अपने गुरु वशिष्ठ जी से क्या प्रश्न किया और गुरु वशिष्ठ जी ने क्या उत्तर दिया उसको विस्तारपूर्वक सुनिए।
व्यास जी कहने लगे कि हे सूतजी राजा ने अपने गुरु वशिष्ठ जी के पास पहुंच कर उनके चरणों को छूकर उनको प्रणाम किया और उसके बाद तपस्वी के बताए हुए प्रश्नों को अति नम्रता से पूछा! कि हे गुरुदेव! आपने आचार, दंड, नीति, राज्य धर्म तथा चारो वर्णों के चारो आश्रमो की क्रियाओं, दान और उनके विधान, यज्ञ और उनकी विधियां, व्रत, उनकी प्रतिष्ठा तथा भगवान विष्णु जी की आराधना विस्तारपूर्वक मुझको बतलाई है, अब मैं आपसे माघ मास के माहात्म्य को विस्तार से सुनना चाहता हूं अतः अब आप नियमपूर्वक मुझे इसकी विधि बतलाइए। गुरु वशिष्ठ जी ने कहा कि हे राजन्! तुमने दोनों लोकों के कल्याणकारी , वनवासी और गृहस्थियों के अंतःकरण को पवित्र करने वाले माघ मास में स्नान करने का बहुत अच्छा प्रश्न पूछा है।
गुरु वशिष्ठ जी ने कहा कि, मकर राशि में सूर्य के आने पर माघ मास में स्नान का फल गौ, तिल, भूमि, स्वर्ण, वस्त्र, अन्न, घोड़ा आदि दानों से भी अधिक होता है। वैशाख तथा कार्तिक में जप, तप, दान और यज्ञ बहुत फल देने वाले हैं परन्तु माघ मास में इनका फल बहुत अधिक होता है। माघ मास में स्नान करने वाला पुरुष राजा और मुक्ति के मार्ग को जानने वाला होता है।
गुरु वशिष्ठ जी ने कहा कि हे राजन्! दिव्य दष्टि वाले महात्माओं ने कहा है कि जो मनुष्य माघ मास में सकाम या भगवान के निमित्त नियमपूर्वक माघ मास में स्नान करता है वह अनंत फल पाता है। उसको शरीर की शुद्धि, प्रीति, ऐश्वर्य तथा चारो प्रकार के फलों की प्राप्ति होती है। अदिति ने बारह वर्ष तक मकर संक्रांति में अन्न त्याग कर स्नान किया इससे तीनों लोकों को उज्ज्वल करने वाले बारह पुत्र उत्पन्न हुए। माघ मास में ही स्नान करने से रोहिणी, सुभगा, अरुंधती दानशीलता हुई और इंद्राणी के समान रूपवती होकर प्रसिद्ध हुई। जो माघ मास में स्नान करते हैं तथा देवताओं के पूजन के लिए सदैव तत्पर रहते हैं, उनको हाथी और घोड़े की सवारी तथा दान का द्रव्य प्राप्त होता है। उनके घर में सदा ही वेद ध्वनि गूंजती रहती है और उनका घर हमेशा अतिथियों से भरा रहता है।
जो माघ मास में स्नान करते हैं, दान देते हैं और व्रत तथा नियमों का पालन करते हैं वह मनुष्य धन्य होते हैं। दूसरे के पुण्यों के क्षीण होने से मनुष्य स्वर्ग से वापस आ जाता है परन्तु जो मनुष्य माघ मास में स्नान करता है वह कभी भी स्वर्ग से वापस नहीं आता। इससे बढ़कर कोई नियम, व्रत, दान, तप पवित्र और पाप नाशक नहीं है। ऋषि भृगु जी ने मणि पर्वत पर विद्याधरों को यह बात बताई थी। तब राजा ने कहा कि भृगु ऋषि ने कब मणि पर्वत पर विद्याधरों को उपदेश दिया था वह विस्तारपूर्वक हमें बताइए। तब ऋषि वशिष्ठ कहने लगे कि हे राजन्! एक बार बारह वर्ष तक वर्षा ना होने के कारण संसार में बड़ी व्याकुलता फैल गई। हिमाचल और विंध्याचल पर्वत के मध्य का देश निर्जन होने के कारण श्राद्ध, तप और वेद अध्याय सब कुछ छूट गए, सारा लोक विपत्तियों में फंसकर प्रजाहीन हो गया।
जब सारा भूमंडल फल और अन्न से रहित हो गया तब विंध्याचल से नीचे बहती हुई नदी के सुन्दर वृक्षों से ढके हुए अपने आश्रम से निकलकर भृगु ऋषि अपने शिष्यों के साथ हिमालय पर्वत पर गए। इस पर्वत की चोटी नीली और नीचे का हिस्सा सुनहरा होने के कारण सारा पर्वत पीतांबरधारी श्री भगवान के जैसा लगता था। रात्रि के समय वह पर्वत दीपकों के समान चमकती हुई दिव्य औषधियों से भरा हुआ किसी महल की शोभा को प्राप्त होता था। वह पर्वत शिखाओं पर बांसुरी बजाती हुई और सुन्दर गीत गाती हुई किन्नरियों तथा केले के पत्ते की पताकाओं से बहुत सुन्दर लग रहा था। यह पर्वत नीलम, पुखराज, पन्ना तथा इसकी चोटी से निकलती हुई रंग–बिरंगी किरणों से इंद्रधनुष के समान प्रतीत होता था। स्वर्ण आदि सब धातुओं से तथा चमकते हुए रत्नों से चारों तरफ फैली हुई अग्नि ज्वाला के समान शोभायमान थी।
इसकी गुफाओं में ऐसे ऋषि–मुनि जिन्होने संसार के सब क्लेशों को जीत लिया है रात और दिन ब्रह्मा का ध्यान करते हैं। कई ऋषि–मुनि एक हाथ में रुद्राक्ष की माला लिए हुए भगवान शंकर की आराधना में लगे हुए हैं। पर्वत के नीचे के भागों में हाथी अपने बच्चों के साथ खेल कूद रहे हैं और रंग–बिरंगे हिरन के झुंड इधर से उधर भाग रहे हैं। यह पर्वत सदैव राजहंस और मोरो से भरा रहता है। इसकी वजह से इसको हेमकुंड कहते हैं, यहां पर सदा ही देवता और अप्सरा निवास करते हैं।