कांचन मालिनी कहने लगी कि हे राक्षस! वह ब्राह्मण कहने लगा कि इन्द्र इस प्रकार से अपनी अमरावती पुरी को गया। सो हे कल्याणी! तुम भी देवताओं से सेवा किए जाने वाले प्रयाग में माघ मास में स्नान करने से निष्पाप होकर स्वर्ग में जाओगी। तब मैने उस ब्राह्मण के ऐसे वचन सुनकर उसके पैरों में गिरकर प्रणाम किया और घर में आकर सब भाई–बंधु, नौकर–चाकर, धन आदि को त्यागकर शरीर को नष्ट हो जाने वाली वस्तु समझकर घर से निकली और फिर माघ मास में गंगा–यमुना के संगम पर जाकर स्नान किया।
कांचन मालिनी ने कहा कि हे निशाचर! मैने संगम में तीन दिन स्नान किया। उस तीन दिन के स्नान से मेरे सब पाप नष्ट हो गए। उसके बाद सत्ताईस दिन के पुण्य से मैं देवता हो गई। अब मैं पार्वती जी की सखी बनकर सुख से निवास करती हूं। इसलिए मैं प्रयाग के माहात्म्य को याद करके सब देवताओं के सहित माघ में प्रयाग स्नान करती हूं। मैंने अपना सब वृत्तांत तुमसे कह दिया है, अब तुम भी इस योनि में पड़ने और कुरूप होने का कारण मुझसे कहो। तुम्हारी दाढ़ी और मूंछें बहुत बड़ी–बड़ी हो गई हैं और तुम पार्वती जी की गुफा में वास करते हो। कांचन मालिनी की बात सुनकर निशाचर कहने लगा कि हे भद्रे! सज्जनों से गुप्त बात कहने से कोई हानि नहीं होती है।
निशाचर कहने लगा कि मुझको अब कोई भी संशय नहीं रहा कि मेरा उद्गार तुमसे ही होगा। सो मैं अब अपना सब वृत्तांत तुमसे कहता हूं। मैं काशी में वेदों का ज्ञाता था और बहुत बड़े उच्च कुल के ब्राह्मण के घर पर जन्म लिया था। मैंने राजा, पापी, शूद्र और वैश्यों से बहुत प्रकार के दान प्राप्त किए। मैंने दान लेने में चांडाल को भी नहीं छोड़ा। हे देवी! उस जन्म में मैंने कोई भी धर्म का कार्य नहीं किया। इसी प्रकार पाप करते हुए वहीं पर मृत्यु को प्राप्त हो गया। क्योंकि मेरी मृत्यु तीर्थ स्थान पर हुई थी इस कारण से मैं नर्क में नहीं गया। पहले दो बार मेरा जन्म गिद्ध योनि में, तीन बार व्याघ्र योनि में, दो बार सर्प योनि में, एक बार उल्लू की योनि में और अब दसवीं बार मैंने राक्षस योनि में जन्म लिया है। इस स्थान को तीन योजन तक मैंने जंतुहीन कर दिया है।
निशाचर कहने लगा कि मैंने बिना अपराध बहुत से प्राणियों को नष्ट किया है। इस कारण से मेरा मन अत्यंत दुःखी है। तुम्हारा दर्शन करने के बाद मेरे चित्त को कुछ शान्ति अवश्य मिली है क्योंकि सज्जन व्यक्ति का साथ तुरन्त ही सुख प्रदान करता है। मैने अपने दुःख के कारण आपसे कहे और सज्जन लोग सदैव दूसरे के दुखों से दुःखी होते हैं। अब यह बताओ कि इस दुख रूपी समुन्द्र को मैं कैसे पार कर सकता हूं। क्या क्षीर सागर केवल हंस को ही दूध देता है, बगुले को नहीं देता। दत्तात्रेय जी कहने लगे कि इस प्रकार के उसके वचन सुनकर कांचन मालिनी कहने लगी कि हे राक्षस! मैं अवश्य ही तुम्हारा कल्याण करूंगी। मैने प्रतिज्ञा ली है कि मैं अवश्य ही तुम्हारा मुक्ति के लिए प्रयत्न करूंगी।
कांचन मालिनी ने कहा कि हे राक्षस! मैंने बहुत बार प्रयाग में स्नान किया है। वेद जानने वाले ऋषियों ने दुखी को दान देने की प्रशंसा की है। समुन्द्र में जल बरसने से क्या लाभ? प्रयाग में स्नान करने का एक दिन का फल मैं तुझे देती हूं। उसी के पुण्य से तुम्हे स्वर्ग की प्राप्ति होगी। उसके फल का अनुभव मैं कर चुकी हूं। तब उस अप्सरा ने अपने भीगे वस्त्रों को निचोड़ कर उसके जल को हाथ में लेकर माघ मास के स्नान के फल को उस राक्षस को अर्पण कर दिया। उसके प्रभाव से उसी समय पुण्य प्राप्त कर वह राक्षसी शरीर को त्याग कर तेजमय सूर्य के समान देवता रूप को प्राप्त हो गया।
इस प्रकार वह राक्षस विमान में चढ़कर अपनी कांति से चारों दिशाओं को प्रकाशमान करता हुआ शोभायमान हो कर कहने लगा कि ईश्वर ही जनता है कि तुमने मुझपर कितना उपकार किया है। अब कृपा करके कुछ शिक्षा दो जिससे कि मैं कभी पाप ना करूं। अब मैं तुम्हारी आज्ञा पाकर स्वर्ग में जाऊंगा। तब कांचन मालिनी ने कहा कि सदैव ही धर्म की सेवा करो, काम रूपी शत्रु को जीतो, दूसरे के गुण तथा दोषों का वर्णन मत करो। शिव जी और वासुदेव का पूजन करो। इस शरीर का मोह मत करो। पत्नी, पुत्र, धन आदि की ममता को त्यागो। सत्य बोलो। वैराग्य भाव धारण कर योगी बनो। मैने तुमसे यह धर्म के लक्षण कहे। अब तुम देवता रूप होकर जल्दी से स्वर्ग को जाओ।
दत्तात्रेय जी कहने लगे कि इस प्रकार गंधर्वों से शोभित वह राक्षस कांचन मालिनी को नमस्कार करके स्वर्ग को गया और देव कन्याओं ने वहां आकर कांचन मालिनी पर फूलों की वर्षा की और फिर प्रेमपूर्वक कहने लगी कि हे भद्रे! तुमने इस राक्षस का उद्धार किया है। इस दुष्ट के डर से कोई भी इस वन में प्रवेश नहीं करता था। अब हम सब निडर होकर वन में विचरेंगी। इस प्रकार कांचन मालिनी उस राक्षस का उद्धार करके प्रेमपूर्वक देव कन्याओं से क्रीड़ा करते हुए शिव लोक को प्रस्थान कर गईं।