कार्तवीर्य कहने लगा कि हे भगवान! वह राक्षस कौन था? और कांचन मालिनी कौन थी? तथा उसने अपना धर्म कैसे दिया और उनका साथ कैसे हुआ। हे ऋषि! अत्रि ऋषि की संतानों के सूर्य! कृपा करके यह कथा सुनाकर मेरा कौतूहल दूर कीजिए।
कार्तवीर्य की बात सुनकर दत्तात्रेय जी कहने लगे कि हे राजन्! इस पुरातन विचित्र इतिहास को सुनो–कांचन मालिनी नाम की एक सुन्दर अप्सरा थी। एक बार की बात है कांचन मालिनी माघ मास में प्रयाग में स्नान करके कैलाश पर्वत पर जा रही थी। तब उसको रास्ते में जाते हुए हिमालय के कुंज में एक घीर राक्षस ने देख लिया। उस सोने जैसे तेज वाली , सुन्दर और बड़े–बड़े नैनों वाली, सुन्दर कटि वाली, सुन्दर केश, चंद्रमुखी जैसी सुन्दर अप्सरा को देखकर उस राक्षस ने उससे कहा कि हे सुन्दरी! कमल जैसे नयनों वाली तुम कौन हो और कहां से आ रही हो? तुम्हारे वस्त्र और केश भीगे हुए क्यों हैं? तुम आकाश मार्ग से कहां जा रही हो और किस पुण्य के प्रताप से तुम्हारा शरीर ऐसा तेजस्वी और तुम्हारा रूप इतना मनोहर है।
उस राक्षस ने कांचन मालिनी से कहा कि हे देवी! तुम्हारे गीले वस्त्र से मेरे मस्तक पर गिरे हुए एक बूंद जल से मेरे क्रूर मन को एकदम से शान्ति प्राप्त हो गई है। इसका क्या कारण है? तुम बहुत ही शीलावती प्रतीत होती हो, कृपया इसका क्या कारण है मुझसे कहिए। कांचन मालिनी ने कहा कि हे राक्षस! मैं काम रूपिणी अप्सरा हूं। मैं प्रयाग में संगम में स्नान करके वापस आ रही हूं। इसी कारण से मेरे वस्त्र गीले हैं। अब मैं कैलाश पर्वत पर जा रही हूं वहां पर श्री शिव जी निवास करते हैं। त्रिवेणी के जल में स्नान करने से मेरी सारी क्रूरता दूर हो गई है, जिसके पुण्य के प्रभाव से मैं इतनी सुन्दर हो गई हूं। उसी पुण्य के वजह से मैं पार्वती जी की प्रिय सखी भी हो गई हूं। मुझे ब्रह्मा जी ने आश्चर्यचकित कर देने वाला उदाहरण बताया था सो वह मुझसे सुनो।
मैं कलिंग देश के राजा की वेश्या थी। मैं बहुत ही सुन्दर थी। मेरी सुन्दरता पर सारा नगर मोहित था। राजा के राज्य में मैने अनेकों प्रकार के भोग भोगे। मेरे घर में वस्त्र और आभूषण की कोई कमी नहीं थी। मुझे देखकर कई कामी पुरूष आपस में स्पर्धा से ही मृत्यु को प्राप्त हो गए। इस प्रकार से मेरा जीवन उस नगर बड़ी सुन्दरता से व्यतीत हुआ। जब मेरा यौवन समाप्त हो गया और मैं वृद्धावस्था को प्राप्त हो गई तो मेरे मन यह विचार उत्पन्न हुआ कि अपना पूरा जीवन पाप कर्म में ही व्यतीत कर दिया। मैने कभी भी कोई धर्म का काम नहीं किया ना ही कभी दान, तप, यज्ञ आदि किया। मैने कभी भी शिवजी और दुर्गा जी की पूजा और आराधना नहीं की। ना ही कभी विष्णु भगवान का पूजन किया।
इस बात से मेरा चित्त बहुत अशांत हो गया। इसी प्रकार अशांत चित्त से मैने एक ब्राह्मण की शरण ली। वह ब्राह्मण वेदों का ज्ञाता और ब्राह्मनिष्ठ था। मैने उनसे पूछा कि मेरा उद्गार कैसे हो सकता है। मैने ब्राह्मण से पूछा कि हे महाराज! साधु–संत अच्छे और बुरे दोनों पर दया करते हैं, इसलिए आप मुझ दीन पर भी दया करके मुझ कीचड़ में डूबी हुई को पकड़कर उबारिए। श्रीरसागर क्या हंस को ही दूध देता है, बत्तख को नहीं देता? तब वह ब्राह्मण मेरी बातों को सुनकर दया करके मुझसे कहने लगा कि तू प्रयाग में जाकर माघ मास में त्रिवेणी संगम में स्नान कर लेकिन मन में अशुभ क्रिया का विचार नहीं करना।
ब्राह्मण ने कहा कि पापों के नाश के लिए महर्षियों ने तीर्थ स्थान से अधिक कोई प्रायश्चित नहीं बताया है। प्रयाग में स्नान करके तू अवश्य ही स्वर्ग को प्राप्त होगी। हे भामिनी! पुराने समय में गौतम ऋषि की स्त्री को इन्द्र ने काम के वशीभूत होकर कपट वेश में उससे भोग किया था। इसलिए गौतम ऋषि द्वारा श्राप दिया गया जिसके कारण उसका शरीर अत्यंत लज्जायुक्त होकर कई भागों वाला हो गया। तब इन्द्र मुंह नीचा करके अपने द्वारा किए गए पाप कर्म की बुराई करने लगा।
मेरु पर्वत के शिखर पर स्वच्छ जल वाले सरोवर पर एक स्वर्ण कमल से भरे हुए कोटर में घुस गया और अपने पाप को धिक्कारता हुआ काम देव की बुराई करने लगा। इन्द्र काम देव की बुराई करते हुए कहने लगा कि यह सब पापों का मूल है। इसके वशीभूत होकर ही मनुष्य नरक को प्राप्त होते हैं और अपने यश, कीर्ति, धर्म तथा धैर्य का नाश करते हैं। उस प्रकार इन्द्र ऐसा सोच रहा था सो इन्द्र के बिना सारा देवलोक शोभाहीन हो गया।
तब सभी देवता, गंधर्व, किन्नर, लोकपाल, इंद्राणी के साथ जाकर वृहस्पति जी से पूछने लगे कि महाराज इन्द्र के ना रहने पर स्वर्ग ऐसा शोभाहीन हो गया है जैसे कि सत पुत्र के बिना श्रेष्ठ कुल। सभी कहने लगे कि हे महाराज! स्वर्ग की शोभा के लिए कोई क्रिया सोचिए। इस विषय में देर नहीं करनी चाहिए। तब वृहस्पतजी कहने लगे कि इन्द्र ने बिना सोचे–विचारे जो कर्म किया है वह उसका फल भोग रहा है। वह कहां है मैं यह सब जनता हूं। फिर वृहस्पतजी ने सबको साथ लेकर स्वर्ण कमलों से युक्त बड़े सरोवर में इन्द्र को देखा जिसका मुख मलीन और आंखें बन्द थीं।
तब इन्द्र ने वृहस्पतजी के चरणों को पकड़ कर कहा कि इस पाप से उद्धार करके आप मेरी रक्षा कीजिए। वृहस्पतजी ने इन्द्र से कहा कि तुम प्रयाग में जाकर संगम में स्नान करो। त्रिवेणी में स्नान करने से तुम पाप मुक्त हो जाओगे। तब इन्द्र सहित सबने ही प्रयाग में जाकर संगम में स्नान किया और त्रिवेणी में स्नान करने से इन्द्र पाप मुक्त हो गए। उसके बाद वृहस्पतजी ने इन्द्र को वरदान दिया कि तुम्हारे शरीर में जितने भाग हैं उतने सब नेत्र हो जाएं। तब इन्द्र ब्राह्मण के वर से हजार नेत्रों से ऐसा सुशोभित हुआ जैसे मानसरोवर में कमल शोभायमान होता है।