तब राजा दिलीप ने ऋषि वशिष्ठ से पूछा कि हे महाराज! यह पर्वत कितना लम्बा–चौड़ा और कितना ऊंचा है ? तब ऋषि वशिष्ठ जी कहने लगे कि हे राजन्! यह पर्वत छत्तीस योजन ऊंचा ऊपर चोटी में दस योजन चौड़ा और नीचे सोलह योजन चौड़ा है। जोकि आम, चन्दन, मदार, देवदार और अर्जुन के पेड़ो से सुशोभित है।
दुर्भिक्ष से दुःखी होकर इस पर्वत को फल और फूलों से परिपूर्ण देखकर भृगु ऋषि वहीं पर रहने लगे। और इन्ही कंदराओं, उपवनों में रहते हुए बहुत दिनों तक तप करते रहे। जब भृगु ऋषि वहां पर अपने आश्रम में रह रहे थे तो एक दिन एक विद्याधर अपनी पत्नी के साथ वहां उतरा। वे दोनों बहुत दुःखी थे। उन्होंने भृगु ऋषि को प्रणाम किया और ऋषि के पास बैठ गए। भृगु ऋषि ने बहुत ही प्रेमपूर्वक उनसे पूछा कि हे विद्याधर ! तुम बहुत दुखी प्रतीत होते हो इसका क्या कारण है? तब विद्याधर कहने लगा कि हे महाराज ! पुण्य के फल को पाकर, स्वर्ग पाकर तथा देवतुल्य शरीर पाकर भी मेरा मुख व्याघ्र जैसा है। मेरे दुःख और अशांति का यही एक कारण है। ना जाने यह मेरे किस पाप का फल है। अब मेरे चित्त की व्याकुलता का दूसरा कारण भी सुनिए।
मेरी पत्नी बहुत रूपवती, मीठा वचन बोलने वाली, नाचने और गाने की कला में निपूर्ण, शुद्ध चित्त वाली, सातों सुरों वाली, वीणा बजाने वाली, जिसने अपने कंठ से गाकर नारद जी को प्रसन्न किया। नाना स्वरों के नाद से वीणा बजाकर कुबेर को प्रसन्न किया। अनेक प्रकार के ताल और नाच से शिव भगवान को भी प्रसन्न किया। शील, उदारता, रूप तथा यौवन में स्वर्ग की कोई अप्सरा भी इस जैसी नहीं है। कहां ऐसी चंद्रमुखी स्त्री और कहां मैं व्याघ्र जैसे मुख वाला, यही चिंता मुझे अन्दर ही अन्दर जलाती रहती है।
विद्याधर की ऐसी बात सुनकर तीनों लोकों की भूत भविष्य और वर्तमान की बात जानने वाले तथा दिव्य दृष्टि रखने वाले ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर ! कर्म के विचित्र फलों को प्राप्त होकर ज्ञानी पुरुष भी मोह को प्राप्त हो जाते हैं। मक्खी के पैर जितना विष भी प्राण लेने वाला हो जाता है। छोटे-छोटे पापों का फल भी अत्यंत दुखदाई हो जाता है। तुमने माघ मास की एकादशी का व्रत करके द्वादशी ना आने तक शरीर में तेल लगाया इसी पाप कर्म से व्याघ्र हुए। एकादशी के दिन व्रत करके द्वादशी के दिन तेल लगाने पर राजा पुरुरवा ने भी कुरूप शरीर पाया था, तब वह अपने कुरूप शरीर को देखकर दुखी होकर हिमालय पर्वत पर देव सरोवर के किनारे पर गया।
प्रीतिपूर्वक शुद्ध स्नान कर कुशा के आसन पर बैठकर भगवान कमल नेत्र, शंख, चक्र, गदा, धारण करने वाले पीताम्बर पहने, वन माला धारण किए हुए भगवान विष्णु जी का चिन्तन करते हुए राजा पुरुरवा ने तीन मास तक निराहार रहकर भगवान का चिंतन किया। इस प्रकार सात जन्मों में प्रसन्न होने वाले भगवान राजा के तीन महीने के तप से ही अति प्रसन्न हो गए और माघ की शुक्ल पक्ष की एकादशी को प्रसन्न होकर भगवान ने अपने शंख के जल से राजा को पवित्र किया। भगवान ने उसके तेल लगाने की बात याद दिलाकर सुंदर देवताओं का सा रूप दिया। जिसको देखकर उर्वशी भी उसको चाहने लगी और राजा कृतकृत्य होकर अपनी पुरी को वापस चला गया।
भृगु ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर ! इसलिए तुम क्यों इतना दुखी होते हो, यदि तुम अपना यह राक्षसी रूप छोड़ना चाहते हो तो मेरा कहा मानकर जल्दी ही पापों को नष्ट करने वाली हेमकूट नदी में माघ मास में स्नान करो। यहां पर ऋषि सिद्ध देवता निवास करते हैं अब मैं तुम्हें इसकी विधि बतलाता हूं। तुम्हारे भाग्य से माघ मास आज से पांचवें दिन ही आने वाला है। तुम पौष शुक्ल पक्ष की एकादशी से इस व्रत को आरम्भ करो। भूमि पर सोना, जितेंद्रिय रहकर दिन में तीन बार स्नान करके पूरे महीने निराहार रहो। सब भोगों को त्यागकर तीनों समय भगवान विष्णु जी का पूजन करो। जब तुम द्वादशी को शिवजी का स्त्रोत और मंत्रों से पूजन करोगे तो तुम्हारा मुख देखकर सभी लोग चकित रह जाएंगे। उसके बाद तुम अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक रहोगे।
पाप, दरिद्रता से बचने के लिए मनुष्य को सदैव ही माघ मास का स्नान करने का प्रयत्न करना चाहिए। स्नान करने वाला मनुष्य इस लोक में सुख भोगकर अन्त में परलोक में सुख पाता है। मुनि वशिष्ठ जी कहने लगे कि हे दिलीप ! भृगु ऋषि के ऐसे वचन सुनकर वह विद्याधर अपनी पत्नी सहित उसी स्थान पर पर्वत के झरने में माघ मास का स्नान करता रहा और उसके प्रभाव से उसका मुख देव सदृश हो गया। उसके बाद वह मणिग्रीव पर्वत पर आनन्द से रहने लगे। उसके बाद भृगु ऋषि भी नियम की समाप्ति पर शिष्यों सहित इवा नदी के तट पर आ गए।