Magh Maas Mahatmya Katha Terahwan Adhyay

माघ मास माहात्म्य कथा तेरहवां अध्याय।

विकुंडल ने कहा कि हे यमदूत! तुम्हारे वचन सुनकर मेरा चित्त बहुत प्रसन्न हो गया है। सज्जनों के वचन हमेशा गंगाजल के समान पापों का नाश करने वाले होते हैं। मीठा बोलना और उपकार करना वैसे ही सज्जनों का स्वभाव होता है जैसे कि अमृत मंडल चन्द्रमा को भी ठंडा कर देता है। हे यमदूत! अब कृपा करके मुझे यह बतलाइए कि मेरे भाई का नरक से कैसे उद्धार हो सकता है? उसकी बात सुनकर यमदूत कुछ देर तक ज्ञान दृष्टि से विचार करता कर मित्रता रूपी रस्से से बंधे हुए कहने लगा कि हे विकुंडल! यदि तुम अपने भाई के लिए स्वर्ग की कामना करते हो तो फौरन अपने आठ जन्मों के पुण्यफल को उसके निर्मित अर्पण कर दो। दूत की बात सुनकर विकुंडल ने पूछा कि हे दूत! वह पुण्य क्या है? और मैने कौन से जन्म में और कैसे उन्हें प्राप्त किया है। सो आप वह सब मुझे संक्षेप में बतलाइए, फिर मैं अपना पुण्य अपने भाई को दे दूंगा। 

विकुंडल की बात सुनकर यमदूत कहने लगा कि हे विकुंडल! मैं तुम्हारे पुण्य की सब कथा कहता हूं तुम ध्यानपुर्वक सुनो। पूर्व जन्म में मधुबन में शालकी नाम का एक ऋषि था। वह बड़ा तपस्वी, ब्रह्मा के समान तेज वाला था। उसकी पत्नी का नाम रेवती था। नवग्रह की तरह रेवती के नौ पुत्र थे। जिनके नाम थे–ध्रुव, शशि, बुध, तार, ज्योतिमान थे। इन पांचों ने गृहस्थाश्रम धारण किया था तथा निर्मोह, जितमाय , ध्याननिष्ठ और गुणातग ये चारो संन्यास ग्रहण कर वन में रहने लगे। 

ये शिखा सूत्र से रहित पत्थर, सोने को समान समझते थे। जो कोई भी अच्छा या बुरा अन्न उनको देता था वे वही खा लेते थे। कैसा भी कपड़ा मिलता था वह उसको ही पहन लेते थे। हमेशा ही ब्रह्मा के ध्यान में लगे रहते थे। इन चारों ने व्रत, शीत, निंद्रा और आहार सबको जीत लिया था। ये चारो बस चर–अचर को विष्णु रूप समझते हुए मौन धारण करके संसार में विचरते थे। ये चारो महात्मा तुम्हारे घर आए, जब तुमने मध्यान्ह के समय इनको भूखे–प्यासे अपने आंगन में देखा तो तुमने गदगद कंठ से आंखों में आंसू भरकर इनको नमस्कार करके उन सबका बड़ा आदर–सत्कार किया। इनके चरणों को धोकर बड़े ही प्रेम के साथ तुम इनसे कहने लगे कि आज मेरा जन्म सफल हो गया, मैं सनाथ हो गया, मुझ पर भगवान प्रसन्न हो गए। 

मेरे माता–पिता, पत्नी, पुत्र, गौ आदि सभी धन्य हैं जो आज मैने हरि के सदृश दर्शन किए। सो हे वैश्य! इस प्रकार जो तुमने श्रद्धा के साथ उनका पूजन किया और चरण धोकर जल को अपने मस्तक से लगाया। उसके बाद विधिपूर्वक इनका पूजन करके तुमने इन संन्यासियों को भोजन कराया। इन संन्यासियों ने भोजन करने के बाद रात्रि में तुम्हारे घर पर विश्राम किया और ब्रह्मा के ध्यान में लीन हो गए। इन संन्यासियों के सत्कार से जो पुण्य तुम्हे मिला वह मैं भी कहने में असमर्थ हूं। क्योंकि सब भूतों में प्राणी सबसे श्रेष्ठ है। प्राणियों में बुद्धि वाले, बुद्धि वालों में मनुष्य, मनुष्यों में ब्राह्मण, विद्वानों में पुण्यात्मा और पुण्यात्मो में ब्रह्मज्ञानी सर्वश्रेष्ठ हैं।

यमदूत कहने लगा कि हे विकुंडल! ऐसी ही संगति से बड़े–बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं। यह पुण्य तुमने अपने पहले आठवें जन्म में किया था। सो यदि तुम अपने भाई को नरक से मुक्त कराना चाहते हो तो यह पुण्य दे दो। यमदूत के ऐसे वचन सुनकर विकुंडल ने प्रसन्नचित होकर अपना पुण्य अपने भाई कुण्डल को दे दिया। विकुंडल का पुण्य पाकर कुण्डल नर्क से मुक्त हो गया और दोनों भाई देवताओं से पूजित किए गए। उसके बाद दूत अपने स्थान को चला गया। 

इस प्रकार वैश्य के पुत्र विकुंडल ने अपने भाई कुण्डल को अपना पुण्य देकर नर्क की यातना से छुड़वाया। इस प्रकार से जो कोई भी इस माहात्म्य को पढ़ता या सुनता है उसको हजार गोदान का फल प्राप्त करता है।
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