वशिष्ठ ऋषि कहने लगे कि हे राजन्! मैने दत्तात्रेय जी के द्वारा कहे माघ मास के माहात्म्य को सुनाया अब तुम माघ मास में स्नान का फल सुनो। माघ मास स्नान सब यज्ञों, व्रतों और तपों का फल देने वाला होता है। माघ मास में स्नान करने वाले स्वयं तो स्वर्ग में जाते ही हैं, उनके माता–पिता दोनों के कुलों को भी स्वर्ग प्राप्त होता है। जो मनुष्य माघ मास में सूर्योदय के समय नदी आदि में स्नान करता है उसके माता–पिता के कुलों की सात पीढ़ियां स्वर्ग को प्राप्त होती हैं। माघ मास में स्नान करने वाले पापी और दुराचारी व्यक्ति भी पापों से मुक्त हो जाता है।
माघ मास में स्नान और हरि का पूजन करने वाला मनुष्य पाप समुदाय से छूटकर सदृश शरीर वाला हो जाता है। यदि कोई आलस में भी स्नान कर लेता है तब भी उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे गन्धर्व कन्याएं राजा के श्राप से भयंकर कल को भोगती हुई लोमेश ऋषि के वचन से माघ मास में स्नान करने से पापों से छूट गईं। यह बात सुनकर राजा दिलीप हाथ जोड़कर मुनि वशिष्ठ से पूछने लगे कि हे गुरुदेव! ये कन्याएं किसकी थीं, उनको कब और कैसे श्राप मिला, उनके नाम क्या थे? ऋषि के वचन से श्राप कैसे मुक्त हुईं ? उन्होंने कहां पर स्नान किया आप कृपा करके सब कथा कहिए।
मुनि वशिष्ठ जी कहने लगे कि हे राजन्! जैसे अरणि से स्वयं अग्नि उत्पन्न होती है वैसे ही यह कथा धर्म और संतान उत्पन्न करती है। हे राजन्! सुख संगीत नामक गंधर्व की एक कन्या थी उसका नाम विमोहिनी था। सुशीला तथा स्वर वेदी की सुम्बरा, चंद्रकांत की सुतारा और सुप्रभा की कन्या चंद्रका ये सब एक समान आयु वाली पांच कन्याएं थीं। जो कि चन्द्रमा के समान कांति वाली और सुन्दर थीं। जैसे कि रात्रि में बादलों में चन्द्रमा शोभायमान होता है वैसे ही ये पांचों कन्याएं पुष्प की तरह खिली हुई शोभायमान हो रही थीं।
ऊंचे पयोधर वाली पद्मिनी वैशाख मास की कामिनी यौवन दिखाती हुई, नवीन पत्तों वाली, लता के समान गोरे रंग वाली, सोने के समय चमकती हुई तथा सोने के आभूषणों से सुशोभित, सुन्दर वस्त्र धारण किए हुए, अनेकों प्रकार की कलाओं में निपूर्ण थीं। वे कन्याएं अनेकों प्रकार की वीणा, बांसुरी तथा गाने–बजाने में प्रवीण थीं। इस प्रकार के वो पांचों कन्याएं क्रीड़ा करती हुई कुबेर के स्थान पर विचरती थीं। एक समय की बात है वे सब कन्याएं माघ मास में विचरती हुई दूसरे वन में चली गईं। वहां पर मंदिर देखकर वह सारी कन्याएं पुष्प तोडकर गौरी पूजा के लिए गईं।
उन पांचों कन्याओं ने स्वच्छ जल के सरोवर में स्नान किया और सुन्दर वस्त्र धारण कर, मौन होकर उन लोगों ने बालू मिट्टी की गौरी बनाकर चन्दन, कुमकुम , कपूर और सुन्दर पुष्पों से विधिवत् गौरी का पूजन करके ये पांचों कन्याएं नृत्य करते हुए ऊंचे स्वरों में सुन्दर गीत गाने लगीं। जब ये सारी कन्याएं नाचने और गाने में लीन थीं उसी समय अच्छोद नामक उत्तम तीर्थ में वेदनिधि नाम के मुनि के पुत्र अग्निप ऋषि स्नान करने के लिए गए। अग्निप ऋषि का रूप कामदेव के समान प्रतीत होता था। उनके नयन कमल के समान थे और मुख चन्द्रमा के समान चमकता था।उनकी छाती बहुत विशाल थी। अग्निप ऋषि शिखा सहित दण्ड लिए, मृगचर्म ओढ़े, यज्ञोपवीत धारण किए हुए था।
उनका रूप और यौवन देखकर पांचों कन्याएं उनपर मोहित हो गईं और कामदेव से पीड़ित हो कर उस ब्राह्मण के मन में कामदेव का डर उत्पन्न कराने लगीं। वे कन्याएं आपस में विचार करने लगीं कि आखिर यह कौन है? रति रहित होने से कामदेव नहीं और एक होने से अश्विनी कुमार नहीं हो सकता है। यह कोई गंधर्व या किन्नर, कामरूप धारण कर कोई सिद्ध या ऋषि का पुत्र मालूम होता है। वे पांचों कन्याएं इस प्रकार से विचार करने लगीं कि वह मनुष्य चाहे कोई भी हो ब्रह्मा जी ने इसे हमारे लिए ही बनाया है। वे कन्याएं आपस में कहने लगीं कि जैसे पूर्व जन्म के प्रभाव से संपत्ति प्राप्त होती है वैसे ही गौरी जी ने हम कुमारियों के लिए श्रेष्ठ वर भेजा है।
वे कन्याएं आपस में यह वर तुम्हारा है या मेरा, अथवा यह वर सबका है ऐसा कहने लगीं। जिस समय उस ऋषि पुत्र ने अपनी मध्यान्ह की क्रिया करके ऐसे वचन सुने तो वह सोचने लगे कि यह तो बहुत भारी समस्या उत्पन्न हो गई है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता तथा बड़े–बड़े ऋषि –मुनि भी स्त्रियों के मोहजाल में फंस चुके हैं। इनके तीक्ष्ण बाणों से किसका मनरूपी हिरण घायल नहीं हो जाएगा। जब तक नीति और बुद्धि रहती है, तब तक पाप का डर लगता है। जब तक गंभीरता रहती है, तब तक मनुष्य स्त्रियों के कामरूपी बाणों से बींधा नहीं जाता है। वह ऋषि पुत्र यह सोचने लगा कि ये कन्याएं मुझे उन्मत्त और मुग्ध कर रही हैं। किन गुणों के द्वारा धर्म की रक्षा हो सकती है।
स्त्रियों के अशुद्ध शरीर में कामी लोग ही सुन्दरता की कामना करके रमन कर सकते हैं। शुद्ध बुद्धि वाले महात्माओं ने स्त्रियों के पास रहना हमेशा ही कष्टकारक कहा है। इसीलिए जब तक यह मेरे पास आएं मुझे यहां से प्रस्थान कर जाना चाहिए। अतः जब तक वे कन्याएं उसके पास पहुंचीं वह योग बल के द्वारा अंतर्धान हो गया। ऋषि पुत्र के ऐसे अदभुत कर्म को देखकर चकित होकर डरी हुई चारों तरफ देखने लगीं। डरी हुई वे कन्याएं आपस में कहने लगीं कि क्या इंद्रजाल था जो हमारे देखते ही देखते विलीन हो गया। वह सारी अप्सराएं विरहा की अग्नि में जलने लगीं और कहने लगीं कि हे कांत! तुम हमको छोड़कर कहां चले गए? क्या तुमको ब्रह्मा ने हमको विरह रूपी अग्नि में जलाने के लिए बनाया था। क्या तुम्हारे चित्त में दया नहीं है जो हमारा चित्त दुखी करके चले गए। क्या तुमको हमपर विश्वास नहीं है, क्या तुम कोई मायावी हो जो बिना किसी अपराध के हम लोगों पर क्रोध कर रहे हो। तुम्हारे बिना हम सब कैसे जिएंगी। हे कांत! जहां पर तुम गए हो हमें भी शीघ्र ही वहां लेकर चलो, हमारा संताप हरो और हमें दर्शन दो। सज्जन लोग किसी का नाश नहीं करते हैं।