Magh Maas Mahatmya Katha Baiswan Adhyay.

माघ मास माहात्म्य कथा बाईसवां अध्याय।

देवद्युति से इतना कहने के बाद भगवान अंतर्ध्यान हो गए। तब देवनिधि कहने लगे कि हे महर्षि! जैसे गंगाजी में स्नान करने से मनुष्य पवित्र हो जाता है, वैसे ही भगवान की इस कथा को सुनकर मैं पवित्र हो गया। अब आप कृपा करके उस स्त्रोत को कहिये
जिससे उस ब्राह्मण ने भगवान को प्रसन्न किया था। 

लोमश ऋषि कहने लगे कि उस स्त्रोत को पहले भक्तराज गरुड़ जी ने पढ़ा उनसे मैने सुना। हे विप्र! यह स्त्रोत अध्यात्म विद्या का सार, पापों का नाश करने वाला है। वासुदेव, सर्वव्यापी, चक्रधारी, सज्जनों के प्रिय जगत के स्वामी श्री कृष्ण को मेरा नमस्कार है। आप ही स्तुति योग्य एवं स्तुति स्वरूप आप स्वयं ही हैं। सारा जगत ही विष्णुमय है, भक्ति ही आनंददात्री है जिनकी स्वांसों से साग एवं सूत्रयुक्त वेदों की उत्पत्ति हुई हो उनकी प्रसन्नता के लिए हम भक्ति ही प्रकट कर सकते हैं। जिनको वेद नहीं जान सकते, ना वाणी ना मन जान सकता है उसकी स्तुति में अग्यानी क्या कर सकता है। सारा चर–अचर संसार जिसकी माया से चक्र की तरह घूम रहा है। 

हे भगवन्! इसी से आप चक्रधारी कहलाते हो, ब्रह्मा–विष्णु आप ही हो। सारे संसार को उत्पन्न करने वाले ब्रह्मा को भी आप उत्पन्न करने वाले हो। जब जीव शरीर को धारण करता है तब उसमें ज्ञान उत्पन्न होता है। तुम सब सुखों के दाता हो इसमें कोई संदेह नहीं है। आपसे सम्पूर्ण सुखों को देने वाली बुद्धि उत्पन्न होती है। आप ही पांच कर्मेंद्रिय, पंचमहाभूत तथा मन के विविध भाव हो। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र की कल्पना से आप संसार की कल्पना उसी प्रकार करते हो जैसे कि पिता अपनी पुत्री की करता है।

लोमश ऋषि कहने लगे कि कवियों में जो रूप शोभा देता है उन निर्गुण भगवान विष्णु को मैं नमस्कार करता हूं! जिसमें ज्ञान रखने से श्रुतियों में कहे हुए कर्मों को लोग करते हैं, उन परम ब्रह्मा जी को मैं नमस्कार करता हूं! मैं उस सत रूप हरि को, जिसको योगी लोग सब प्राणियों में आत्मरूप में देखते हैं, जिनकी उपासना करते हैं, जिसको अद्वैत कहते हुए गाते हैं और यज्ञ करते हैं, उस माधव कृष्ण को मैं नमस्कार करता हूं! मनुष्यों को माया तथा मोह में पैदा हुए विचित्र आभास, अलंकार तथा ममता को जानकर खो देते हैं उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूं। संसार में मनुष्यों के मोह रूपी वायु से सदा भभकने वाली ज्वाला आपके चरण–कमल की छाया में पहुंचने से नहीं जलाती। जिसके स्मरण मात्र से मोह, अज्ञान, रोग, दुःख दूर हो जाते हैं, इस अनंत रूप को मैं नमस्कार करता हूं! जिसमें मिल जाने पर और किसी दूसरे की इच्छा नहीं रहती। जिसको जानकार अद्वैतवादी आत्मा को देखते हैं। यदि विष्णु शब्द का अर्थ और उसके विषय का ज्ञान एक ही होता है तो इस सत्य से हे माधव! इस संसार की माया में फंसकर मैं तेरे ही ध्यान में रत रहता।

यदि वेदांत दर्शन में भगवान सारे संसार में व्याप्त हैं तो इसी सत्य से भगवान में भरी निर्विघ्न भक्ति हो जो बीज नहीं है तो भी बिना बीज के स्वयं विद्यमान हैं। सो वह विष्णु भगवान रूपी रंग से हमारे बीज के टुकड़े–टुकड़े को जो सृष्टि तथा लय के लिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीन रूप धारण करते हैं और कार्य में सत, रज और तम इन तीनों गुणों में विद्यमान हैं। वह भगवान मुझपर प्रसन्न हों! जो मनुष्यों के हृदय रूपी मन्दिर में निर्मल वास करते हैं वह देवाधिदेव मुझपर प्रसन्न हों! जो अविद्यापूर्ण संसार का त्याग करता है, वह जगन्मय आप हो। आपके द्वारा बनाया गया विश्व आनंद करता है, वह आपके त्याग करने पर अपवित्र हो जाता है। उसका साथ करने पर भी आप बिना साथ के बने रहते हैं। विकाररहित जिनके चार्वाक पंचभूत योग से पैदा हुआ चैतन्य मानते हुए उपासना करते हैं।

जैन लोग आपको शरीर का परिणाम मानते हैं। सांख्यवादी आपको प्रकृति से परे पुरुष मानकर ध्यान करते हैं। जन्म से रहित, चैतन्य रूप सदा आनन्द स्वरूप उपनिषद जिसकी महिमा का बखान करते हैं। आकाशादि पंच महाभूत देह मन, बुद्धि, इंद्रियां सब आप ही हो।आपसे अलग और कुछ भी नहीं है। आप ही सब प्राणियों को उत्पन्न करने वाले हो और मुझको शरण देने वाले भी आप ही हो। आप अग्नि, रवि, इन्द्र, होम, मंत्र, क्रिया तथा कर्म के फल देने वाले वैकुंठ में आपके अलावा कोई और नहीं है। मैं आपकी शरण में हूं। सब प्राणियों के हेतु तथा उनको शरण देनेवाले आप ही हो। जिस प्रकार से युवा पुरुष की युवती में और युवती की युवा में प्रीत होती है वैसी ही प्रीत मेरी आपसे है। 

अगर कोई पापी भी आपको प्रणाम करता है उसको यमराज ऐसे नहीं देखते हैं जैसे उल्लू सूर्य को। प्रत्येक पाप मनुष्य को उस समय तक ही सुख देते हैं, जब तक वह आपके चरणों का सहारा नहीं लेता है। जिसको गुण, जाति तथा धर्म को स्पर्श नहीं कर सकते तथा गतियां भी स्पर्श नहीं करतीं। जो इन्द्रियों के वशीभूत नहीं है। जिनका बड़े से बड़े मुनि भी साक्षात नहीं कर सकते, उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूं! जिनके ज्ञान रूपी बहुत सुन्दर गुण हैं, जिन्होंने सुख स्वरूप मोक्ष रूपी लक्ष्मी का आलिंगन किया, जिन्होंने आत्म स्वरूप सुख भोगा है और जिन्होंने ध्यान रूप से मृत्यु को वश में कर लिया है, ऐसे मुनियों से सेवित भगवान को मेरा नमस्कार है। जो जन्मादि से अलग हैं, जिनको काम, क्रोध आदि दोष दुःख नहीं देते हैं उन वासुदेव भगवान को मैं नमस्कार करता हूं! जिनके ज्ञान की गति से अविद्या रूपी मल शुद्ध हो जाता है, जिनके ज्ञान रूपी शस्त्र से संसार रूपी शत्रु का नाश हो जाता है, उन दुखों का नाश करने वाले भगवान को मैं नमस्कार करता हूं! जिस प्रकार से सब स्थावर जंगम संसार को उत्पन्न करते हैं, इसी सत्य से भगवान आप मुझको दर्शन दें।

इस प्रकार से उसकी सच्ची भक्ति को देखकर भगवान ने प्रसन्न होकर उस ब्राह्मण को दर्शन दिए और ब्राह्मण की स्तुति से प्रसन्न होकर तथा उसको वरदान देकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए। ब्राह्मण भगवान के दर्शन पाकर कृतकृत्य होकर भगवान की भक्ति में लीन हो गया। उसके बाद वह ब्राह्मण अपने शिष्यों के साथ स्त्रोत पढ़ता हुआ तपोवन में रहने लगा। जो कोई स्तोत्र को पढ़ता या सुनता है उसकी बुद्धि पाप में नहीं लगती है और न ही बुरा फल देखता है। इसके कीर्तन से मनुष्यों की बुद्धि, मन तथा इंद्रियां स्वस्थ होती हैं। जो भक्तिपूर्वक इसके अर्थ को विचार कर इसका जप करता है वह वैष्णव पद को प्राप्त होता है। 

इसके सदैव पढ़ने से मनवांछित कार्य सिद्ध हो जाते हैं। मनुष्य सुपुत्र पाता है तथा धन, पराक्रम और चिरायु होता है। इसके पाठ से बुद्धि, यश, धन, कीर्ति, ज्ञान और धर्म बढ़ते हैं। दुष्ट ग्रहों की शांति होती है। यह व्याधियों व अनिष्टों को दूर करता है। दुर्गति से तारता है, इसके पढ़ने से भूत, पिशाच, चोर, व्याघ्र और सिंह का भय नहीं रहता है। जो भगवान का पूजन करने के बाद स्त्रोत को पढ़ता है, वह पापों से ऐसे ही दूर रहता है जैसे कि जल पंक से कमल दूर रहता है। जो इस स्त्रोत को एक काल, दो काल या तीन काल पढ़ता है वह अक्षय फल को प्राप्त करता है। जो मनुष्य प्रातःकाल इस स्त्रोत को पढ़ते हैं वह इस लोक में और परलोक में अक्षय सुख पाते हैं। 

देवद्युति का बनाया हुआ यह स्त्रोत भगवान को अत्यंत प्रिय है। इसके साथ ही भगवान के दर्शन कराने वाला भी है। "योग सागर" नाम का यह स्त्रोत परम पवित्र है। जो मनुष्य इसको भक्तिपूर्वक पढ़ता है वह विष्णु लोक को प्रस्थान करता है। अब पिशाच मोक्ष की कथा कहते हैं। 


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