Magh Maas Mahatmya Katha Choubiswa Adhyay .

माघ मास माहात्म्य कथा चौबीसवां अध्याय।
लोमश जी कहने लगे कि राजा पहले तो तामिश्र नामी नरक में गया। उसके बाद अंध तामिश्र नामक नर्क को गया जहां पर वह अति दुखों को प्राप्त हुआ। उसके बाद महारौरव और उसके बाद कालसूत्र नामी नरक में गया। वहां पर अत्यधिक कष्टों को भोगते हुए मूर्छित हो गया। जब वह राजा मूर्छा से फिर चेतना में वापस आया तो तापन और फिर संप्रतापन नामक नरक में गया। अनेक प्रकार के दुखों को भोगता हुआ वह प्रताप नाम के नरक में गया तब काकोल, कुड़पल, पूर्व मृतिका, लोहशंकु, मृजीप आदि नरकों को भोगता हुआ असि–पत्र में पहुंचा और फिर लोह धारक आदि नरकों में गिराया गया। 

वह राजा भगवान विष्णु जी के साथ द्वेष करने के कारण इक्कीस युग तक भयंकर दुखों और यातनाओं को झेलता हुआ नरक के निकलकर अंत में हिमालय पर्वत पर बहुत बड़ा पिशाच हुआ। वहां पर वह भूखा–प्यासा फिरता रहा। मेरु पर्वत पर भी उसको ना तो कहीं भोजन मिला और ना ही पीने को जल मिला। इस प्रकार होनी के कारण वह पिशाच घूमता हुआ एक समय प्लुत प्रस्त्रवण नाम के वन में जा पहुंचा। बहेड़े के वृक्ष के नीचे वह दुःखी होकर "हाय मरा, हाय मरा; ऐसे कहकर जोर–जोर से चिल्लाकर रोने लगा। वह राजा भूख से व्याकुल होकर कहने लगा कि मेरे इस जन्म का अंत कब होगा। इस पाप रूपी समुन्द्र से मुझे कौन निकलेगा, कौन मुझको सहारा देगा। 

लोमश ऋषि कहने लगे कि इस प्रकार वेद पाठ करते हुए देवद्युति ने उसके दुःख भरे वचनों को सुना और वहां पर एक भयंकर पिशाच को देखा। जिसकी लाल–लाल आंखे बहुत डरावनी थीं। दुर्बल शरीर, काले–काले ऊपर खड़े बाल, विकराल चेहरा, काला शरीर, लम्बी सी जीभ बाहर को निकली हुई, लम्बे होंठ, लम्बी जांघें, लम्बे–लम्बे पैर, सूखा चेहरा, आंखों में पड़े गढ्ढे वाले पिशाच को देखकर देवद्युति ने उससे पूछा कि तुम कौन हो? और इस प्रकार से क्यों रो रहे हो? तुम्हारी यह दशा किस कारण से हुई है और मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं? मेरे आश्रम में आ जाने पर कोई भी प्राणी दुःखी नहीं रहता और वैष्णव लोग आनंद ही करते हैं। सो हे भद्रे! तुम अपने दुःख का कारण जल्दी से कहो क्योंकि विद्वान लोग मनोरथ पाने के लिए विलम्ब नहीं किया करते। 

देवद्युति के ऐसे वचन सुनकर प्रेत ने रोना बंद कर दिया और विनीत भाव से कहने लगा कि हे द्विज! किसी बड़े पुण्य की वजह से मुझको आपके दर्शन हुए हैं। बिना पुण्य के साधुओं की संगति नहीं होती है। उसके बाद प्रेत ने अपने जन्म का वृतांत कहा कि भगवान विष्णु से द्वेष के कारण मेरी यह दशा हुई है। जिस हरि का नाम यदि अंत समय में मनुष्य के मुख से भूलवश भी निकल जाए तो मनुष्य को विष्णु पद प्राप्त होता है। जो भगवान विष्णु सबका पालन करते हैं उन्हीं से मैने द्वेष किया है। यह सब मेरे ही कर्मों का दोष है। जिसकी ब्राह्मण तप द्वारा प्रार्थना करते हैं। ब्रह्मादि देवता, सनकादिक ऋषि जिसको मुक्ति पाने के लिए पूजते हैं। जो आदि, मध्य तथा अंत में विश्व का विधाता और सनातन है। जिसका आदि, मध्य, अंत नहीं है, उस भगवान के साथ मैने द्वेष किया है। 

पिशाच कहने लगा कि हे महाराज! जो कुछ पुण्य मैने पहले जन्म में किए थे। वह सब के सब भगवान विष्णु की द्वेष रूपी अग्नि में भस्म हो गए। यदि किसी प्रकार से मेरे इस पाप का नाश हो जाए तो मैं भगवान विष्णु जी के सिवाय किसी और देवता का पूजन नहीं करूंगा। विष्णु भगवान से द्वेष करके मैने बहुत समय तक नर्क यातना भोगी और अब पिशाच योनि में पड़ा हूं। इस समय भी मैं किसी अच्छे कर्म के योग से ही आपके आश्रम में आया हूं। जहां पर आपके सूर्य रूपी दर्शन ने मेरे दुख समान अंधकार को दूर किया है। अब आप कुछ ऐसा उपाय बताइए जिससे कि मेरी यह पिशाच योनि दूर हो जाए। क्योंकि सज्जन पुरुष उपकार करने में देर नहीं करते हैं। देवद्युति कहने लगे कि यह माया देवता, मनुष्य, असुर सबकी स्मृति को मोहित कर देती है। जिससे धर्म का नाश करने वाला द्वेष उत्पन्न हो जाता है। 

जगत के उत्पन्न करने वाले, रक्षा करने और नाश करने वाले जो सब प्राणियों की आत्मा है, उनसे भी लोग द्वेष करते हैं। जिनके अर्पण करने से सभी फल सफल होते हैं। उनकी भक्ति से मुख मोड़ने वाले मूर्ख कौन सी गति को प्राप्त नहीं होते। चारों वर्णों का वेदोक्त हरि का भजन करना की उत्तम है अन्यथा कुमार्ग में चलने वाले मनुष्य नरक के गामी होते हैं। इसी कारण वेद विरुद्ध कर्मों का त्याग कर देना चाहिए। अपनी बुद्धि से बचे हुए धर्म के मार्ग पर चलने से मनुष्य परलोक के पथ का भी नाश करते हैं। वह वेद, देवता और ब्राह्मणों की निंदा करते हैं। झूठे मन कल्पित शास्त्रों को मानने वाले नरक में जाते हैं। देवाधिदेव विष्णु जी से विमुख होने वाले लोग नरक में जाते हैं। जैसे द्रविड़ देश के राजा नरक में गया। इस कारण इनकी निंदा नहीं करनी चाहिए और वेद में कही गई क्रिया को भी नहीं करना चाहिए। लोमश ऋषि कहने लगे कि ऐसा कहने पर मुनि ने पिशाच को सुमार्ग बतलाया कि माघ मास में तुम प्रयाग में जाकर स्नान करो, उससे तुम्हारी यह पिशाच योनि समाप्त हो जाएगी।

माघ मास में प्रयाग स्नान करने से मनुष्य पहले जन्म के पापों से मुक्त हो जाता है। माघ मास में प्रयाग में स्नान करने से मनुष्य को मुक्ति प्राप्त होती है। इससे बढ़कर कोई और प्रायश्चित नहीं है। संसार में यह मोक्ष और स्वर्ग का खुला द्वार है। गंगा नदी और यमुना नदी दोनों का संगम त्रिवेणी संसार में सबसे उत्तम तीर्थ है। पापरूपी बंधनों को काटने के लिए यह कुल्हाड़ी है। कहां तो विष्णु, सूर्य, तेज, गंगा, यमुना का संगम और कहां यह तुच्छ पापरूपी तृण की आहुति। जैसे घने अन्धकार को दूर करने वाला शरद का चंद्रमा चमकता है, उसी प्रकार संगम के स्नान से मनुष्य पवित्र हो जाता है। मैं तुमसे गंगा–यमुना के संगम का वर्णन नहीं कर सकता हूं। जिसके जल की एक बूंद के स्पर्श से ही केरल देश का ब्राह्मण मुक्त हो गया था। लोमश ऋषि के ऐसे वचनों को सुनकर प्रेत के मन शान्ति उत्पन्न हो गई। उसको ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कि वह सारे दुखों से छूट गया हो। 


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