लोमश ऋषि कहने लगे पूर्व काल में अवंती देश में राजा वीरसेन नाम का राजा था। उसने नर्मदा नदी के किनारे राजसूय यज्ञ किया और अश्वमेध यज्ञ भी किए। जिनके खंभे सोने के बनवाए गए थे। ब्राह्मणों को बहुत सुन्दर आभूषण, वस्त्र, गाय, और अन्न दान में दिया गया। राजा वीरसेन बहुत दानी और ईश्वर को मानने वाला था। भद्रक नाम का एक ब्राह्मण जोकि बहुत ही दुराचारी, मूर्ख, कुलहीन और कृषि का कार्य करने वाला था। वह ब्राह्मण अपने भाई–बंधुओं द्वारा त्यागा देव यात्रियों के साथ घूमता हुआ प्रयाग पहुंच गया। जिस समय वह ब्राह्मण प्रयाग आया उस समय माघ मास चल रहा था। उस ब्राह्मण ने माघ मास में तीन दिन तक त्रिवेणी में स्नान किया। माघ मास में तीन दिन स्नान करने से वह निष्पाप हो गया और फिर वह अपने घर चला गया।
लोमश ऋषि ने कहा कि राजा और वह ब्राह्मण एक ही दिन मृत्यु को प्राप्त हुए। मैने उन दोनों को इंद्रलोक में देखा। उन दोनों ही वस्त्र, आभूषण, तेज, रूप, बल और स्त्री सब में एक समान थे। ऐसा देखकर उसके माहात्म्य को क्या कहा जाए। राजसूय यज्ञ करने वाला स्वर्ग का सुख भोगकर फिर भी जन्म लेता है। परन्तु संगम में स्नान करने के बाद जन्म–मरण के बंधन से छूट जाता है। गंगा और यमुना के संगम की हवा के स्पर्श से ही बहुत से दुख नष्ट हो जाते हैं।
किसी भी तीर्थ में किए पाप माघ मास में प्रयाग में स्नान करने से ही नष्ट हो जाते हैं। लोमश ऋषि बोले कि अब मैं पिशाच मोचन नाम का एक पुराना इतिहास तुम्हे सुनाता हूं। इस इतिहास को तुम और तुम्हारा पुत्र तथा ये कन्याएं भी सुनें, उससे इनको स्मृति प्राप्त होगी। पुराने समय में देवद्युति नाम का एक वैष्णव ब्राह्मण था। वह बहुत गम्भीर और वेदों का जानने वाला था। वेदनिधि ने पूछा कि वह कहां का रहने वाला, किसका पुत्र और किस पिशाच को उसने नियुक्त किया था आप कृपा करके विस्तारपूर्वक सब कथा सुनाइए
लोमश ऋषि ने कहा किल्पज्ञ से निकली हुई सुंदर सरस्वती के किनारे पर उसका स्थान था। जंगल के बीच में पुण्य जल वाली सरस्वती नदी बहती थी। वन में अनेक प्रकार के पशु भी विचरते थे। उस ब्राह्मण के श्राप के भय से पवन भी बहुत सुंदर चलती थी और वन चैत्र रथ के समान था। उस जगह धर्मात्मा देवद्युति रहता था। उसके पिता का नाम सुमित्र था और वह लक्ष्मी के वरदान से उत्पन्न हुआ था। वह सदैव अपनी आत्मा को स्थिर रखता, गर्मी में वह अपने नेत्र को सूर्य की तरफ रखता था, वर्षा में वह खुली जगह पर तपस्या करता था, हेमंत ऋतु में सारस्वत सरोवर में बैठता और त्रिकाल संध्या करता था। वह जितेंद्रिय और सत्यवादी भी था। अपने आप गिरे हुए फल और पत्तियों का भोजन करता था कभी भी फल इत्यादि तोडकर नहीं खाता था। उसका शरीर पूरी तरह से सूख गया था और उसमें हड्डियां मात्र रह गई थीं।
इस प्रकार से वहां पर तप करते हुए उसको हजार वर्ष बीत चुके थे। तप के प्रभाव से उसका शरीर अग्नि के समान प्रज्ज्वलित था। भगवान विष्णु जी की प्रसन्नता से ही सब कर्म करता था। दधीचि ऋषि के वरदान से ही वह श्रेष्ठ ब्राह्मण हुआ था। एक समय की बात है उस ब्राह्मण ने वैशाख महीने की एकादशी को हरि की पूजा करके उनकी सुन्दर स्तुति और विनती करी। उसकी विनती सुनकर श्री हरि विष्णु उसी समय गरुड़ पर चढ़कर उसके पास आए। चतुर्भुज विशाल नेत्र, मेघ जैसा स्वरूप, भगवान को अपने सामने देखकर उसकी आंखों में प्रसन्नता के कारण आंसू आ गए। उनको अपने सामने साक्षात् देखकर उसने उनको दंडवत प्रणाम किया।
उसने अपने शरीर का भी याद ना रखा और भगवान के ध्यान में लीन हो गया। तब श्री हरि विष्णु जी ने उससे कहा कि हे देवद्युति! मैं जानता हूं कि तुम मेरे परम भक्त हो। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं तुम जो चाहो वरदान मांग सकते हो अतः अब तुम वर मांगो। इस प्रकार भगवान के वचन सुनकर प्रेम के मारे लड़खड़ाती हुई वाणी में वह ब्राह्मण कहने लगा कि हे देवाधिदेव! अपनी माया से शरीर धारण करने वाले आपका दर्शन देवताओं को भी दुर्लभ है। अब आपका दर्शन भी हो गया अब मुझे और क्या चाहिए। मैं चाहता हूं कि मैं सदैव आपकी भक्ति में लगा रहूं। भगवान उसके वचन सुनकर कहने लगे कि हे देवद्युति! ऐसा ही होगा। तुम्हारे तप में कोई बाधा नहीं पड़ेगी। जो मनुष्य तुम्हारे कहे गए स्तोत्र को पढ़ेगा उसकी मुझमें अचल भक्ति होगी। उसके धर्म कार्य सांगोपांग होंगे और उसकी ज्ञान में परम निष्ठा होगी।