Magh Maas Mahatmya Katha Sattaiswan Adhyay.

माघ मास माहात्म्य कथा सत्ताइसवां अध्याय।

प्रेत कहने लगा कि हे पथिक! मैं इस समय जो गंगाजल तुम्हारे पास है उसे मांगता हूं। मैंने इसका बहुत माहात्म्य सुना है। मैंने इस पर्वत पर गंगाजल का बड़ा अदभुत आश्चर्य देखा था इसलिए मैं तुमसे यह गंगाजल मांगता हूं। मैं प्रेत योनि में रहकर बहुत दुःखी हो गया हूं। एक ब्राह्मण अनधिकारी को यज्ञ कराकर ब्रह्मराक्षस हो गया। वह मेरे साथ आठ वर्ष तक रहा। उसके पुत्र ने उसकी अस्थियों को इक्कठा करके गंगा में कनखल स्थान में गिरवा दिया। उसी समय वह राक्षसत्व त्याग कर सद्गति को प्राप्त हो गया। मैने यह सब प्रत्यक्ष देखा है इसलिए तुमसे प्रार्थना कर रहा हूं। मैंने पिछले जन्म में तीर्थ स्थलों पर बड़े–बड़े दान लिए थे। परन्तु मैंने उसका प्रायश्चित नहीं किया था। इसी की वजह से मैं हजारों वर्ष तक प्रेत योनि में पड़ा हूं। अन्न और जल के बिना मैं अपना जीवन दुःख में व्यतीत कर रहा हूं।


प्रेत ने कहा हे पथिक! इस योनि में मुझे हजारों वर्ष बीत चुके हैं। मेरे प्राण मेरे कंठ तक आ गए हैं अतः आप मुझे जल देकर मेरे प्राणों को बचा लो। मनुष्य यदि कुष्ठ रोग से ग्रसित होता है तो भी अपने प्राणों को त्यागने की इच्छा नहीं करता है। देवद्युति जी कहने लगे कि उस प्रेत के ऐसे वचन सुनकर वह ब्राह्मण बड़ा विस्मित हुआ और सोचने लगा कि संसार में पाप और पुण्य के फल अवश्य प्राप्त होते हैं। देव, दानव, मनुष्य और कीड़े–मकोड़े भी रोगों से पीड़ित होते हैं। बाल तथा वृद्धों को मरण अंधा, कुबड़ापन, ऐश्वर्य, दरिद्रता, पांडित्य तथा मूर्खता सब कर्मों से ही होता है। इस कर्म भूमि में जिन्होंने न्याय से धन इक्कठा किया है वह धन्य हैं। 


ब्राह्मण के ऐसे वचन सुनकर प्रेत गदगद होता हुआ मधुर वाणी में बोला हे पथिक! मैं जानता हूं कि आप सर्वज्ञ हैं। आप मुझ दीन को जीवन का आधार जल इस प्रकार से दीजिए जिस प्रकार मेघ चेतक को देता है। तब ब्राह्मण कहने लगा कि हे प्रेत! मेरे माता और पिता भृगु क्षेत्र में बैठे हैं, मैं उन्हीं के लिए जल लेकर आया हूं। अब बीच में तुमने गंगा के संगम का जल मांग लिया। अब मैं इसी धर्म संकट में पड़ गया हूं मैं कांड वस्तु में यज्ञों को नहीं मानता हूं जितना कि प्राण रक्षा को मानता हूं। इसलिए मैं तुम्हे जल देकर तृप्त करूंगा और फिर अपने माता–पिता के लिए जल लेकर जाऊंगा। लोमश ऋषि कहने लगे कि इस प्रकार से उस पथिक ने गंगा–यमुना के संगम का जल उस प्रेत को दे दिया। उस प्रेत ने प्रीतिपूर्वक उस जल को पिया। उसी समय वह प्रेत शरीर को छोड़कर दिव्य देहधारी हो गया। केरल कहने लगा कि बिंदु मात्र गंगा जल से वह प्रेत मुक्त हो गया। हम समझते हैं कि ब्रह्माजी भी इस जल के गुण का बखान नहीं कर सकते। नहीं तो भोलेनाथ जी भी इस जल को मस्तक पर क्यों धारण करते।


इस संसार में जो मनुष्य काया, वाचा और मनसा के पापों से रंग गए हैं, वह गंगाजल के बिना नहीं घुलते हैं। गंगाजल के सेवन से मुक्ति सदा सम्मुख खड़ी रहती है। जिसके जल को स्पर्श करते ही प्रेत प्रेतत्व को छोड़कर मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं। जो गंगा स्नान करता है वह वैष्णव पद को प्राप्त होता है। यदि सम्बन्धी लोग गंगाजल से तर्पण करें तो नरक में रहने वाले पितर भी स्वर्ग में चले जाते हैं। वे स्वर्ग में रहते हुए ब्रह्मत्व को प्राप्त होते हैं। गंगाजल के समान और कोई मुक्ति का साधन नहीं है। वह प्रेत वहां से चला गया। उसके बाद जब एक मास के बाद माघ मास आया तो उसने सुने हुए प्रयाग माहात्म्य के अनुसार गंगा–यमुना के संगम पर स्नान करके पिशाच शरीर को धारण कर भक्तिपूर्वक नारायण की स्तुति करता हुआ वह द्रविड़ देश का राजा हुआ। उसके बाद वह राजा गंधर्वों से सेवित उत्तम विमान पर बैठकर इंद्रपुरी को चला गया। 


सो हे द्विज! यह इतिहास पापों का जल्दी ही नाश कर देता है। इसमें धर्म का ज्ञान होता है। यह पुण्य, यश और कीर्ति को बढ़ाने वाला है। ज्ञान तथा मोक्ष को देने वाला है। तुम भी सद्गति पाने के लिए प्रयाग चलो। वहां पर हम ऐसा स्नान करें जो देवताओं को दुर्लभ होता है। वहां पर श्राप से पैदा हुआ पिशाचपन सब नाश को प्राप्त हो जाएगा। इस प्रकार लोमश ऋषि के मुख से अमृतमय मधुर कथा को सुनकर मानो कि अमृत पी लिया हो सब प्रसन्न हुए और पापरूपी समुन्द्र से पार हुए। उन्हीं के साथ सब लोगों ने दक्षिण दिशा को प्रस्थान किया।

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