Magh Maas Mahatmya Katha Teiswan Adhyay.

माघ मास माहात्म्य कथा तेइसवां अध्याय।

लोमश ऋषि कहने लगे कि जिस पिशाच को देवद्युति ने मुक्त किया था वह पहले द्रविड़ नगर का राजा था, उसका नाम चित्र था। वह बहुत ही सत्य परायण और शुरवीर था। वह सदैव पुरोहितों को आगे करके यज्ञ आदि करता था। दक्षिण दिशा में उसका राज था और उसके कोष धन से भरे रहते थे। उसके पास बहुत सारे हाथी, घोड़े थे और वह अत्यंत शोभा को प्राप्त होता था। बहुत सारी स्त्रियों के साथ क्रीड़ा किया करता था। वह शस्त्र विद्या में बहुत निपुण था और वह नित्य अतिथियों का सत्कार किया करता था। वह राजा नित्य प्रतिदिन ब्रह्मा, विष्णु, महेश और सूर्य की पूजा किया करता था। वह जंगल में भी सदैव ही स्त्रियों से क्रीड़ा किया करता था। 

एक बार की बात है वह पाखंडियों के मंदिर में गया। वहां पर वेदहीन और भस्म लगाए हुए महात्मा बने पाखंडियों से राजा की बातचीत हुई। पाखंडियों ने कहा हे राजन्! शैव धर्म की महिमा सुनो! इस धर्म के प्रभाव से मनुष्य पाप को काटकर मुक्त हो जाता है। सब वर्णों में शैव धर्म ही मुक्ति प्रदान करने वाला है। शिव की आज्ञा के बिना दान, यज्ञ और तपों से कुछ नहीं बनता। शिव का सेवक होकर भस्म धारण करने, जटा धारण करने से ही मनुष्य पाप से छूट जाता है। जटा धारण करने से तथा भस्म लेपन से ही मनुष्य शिव के समान हो जाता है। इसके बराबर कोई पुण्य नहीं है। जटा भस्म धारण किए हुए सभी योगी शिव के सदृश होते हैं। अंध, जड़, नपुंसक और मूर्ख सब जटा से ही पहचाने जाते हैं। शूद्र वर्ण के शैव भी पूजनीय होते हैं।

विश्वामित्र क्षत्रिय होकर तप से ब्राह्मण हो गए। बाल्मीकि चोर होकर उत्तम ब्राह्मण हो गए। अतएव शिव पूजन में किसी बात का विचार नहीं है। तप से ही ब्रह्मत्व प्राप्त होता है, जन्म से नहीं। इस कारण शैव का दर्शन उत्तम है तथा शिव के सिवाय दूसरे देवता का पूजन ना करें। शिव तपस्वी को विष्णु का त्याग करना चाहिए। विष्णु की मूर्ति का पूजन नहीं करना चाहिए। विष्णु के दर्शन से शिव का द्रोह उत्पन्न होता है और शिव के द्रोह से रौरवादि नरक मिलते हैं। इसी लिए भवसागर से पार होने के लिए विष्णु का नाम भी नहीं लेना चाहिए। शिव भक्त निःशंक होकर जो शिव से प्रेम करता है वह कैलाश में वास करता है। इसमें कोई भी संदेह नहीं है। इस धर्म का पालन करने वालों का कभी भी नाश नहीं होता है। 

इस पाखंडी के ऐसे वचन सुनकर राजा ने मोह में आकर उनका धर्म ग्रहण कर लिया और वैदिक धर्म को त्याग दिया। वह श्रुति, स्मृति और ब्राह्मणों की निंदा करने लगा। उसने अपने घर के अग्निहोत्र को बुझा दिया और धर्म के सभी कार्य बंद कर दिए। विष्णु की निंदा और वैष्णवों से द्वेष करने लगा और बोला कि कहां है विष्णु? कहां देखा जाता है? कहां रहता है? किसने देखा है? और जो लोग नारायण का भजन करते थे उनको दुख देता था। पाखंडियों का मत ग्रहण कर राजा वेद, वैदिक, धर्म, दान और दानियों को नहीं मानता था।

अन्याय से दंड देता वह कामी राजा सदैव स्त्रियों के समूह से घिरा रहता और हमेशा ही क्रोध से भरा रहता था। गुरु एवं पुरोहित के वचनों को नहीं मानता था। पाखंडियों पर विश्वास करता हुआ उनको हाथी, घोड़े, स्वर्ण और धन आदि देता था। उनके सब कार्य करता, भस्म धारण करता और मस्तक पर जटा धारण करता था। जो मनुष्य विष्णु का नाम लेता था उसको मृत्यु दंड दिया जाता था। उसने नगर में इस बात का ढिंढोरा पिटवा दिया था कि कोई भी विष्णु का नाम ना ले। उसके भय से सभी ब्राह्मण और वैष्णव उसके देश को छोड़कर दूसरे देशों में चले गए थे। 

सारे के सारे देशवासी केवल नदी के जल को पीकर जीते थे। जीविका से दुखी होकर वृक्ष आदि भी नहीं लगाते थे और ना ही खेती–बाड़ी करते थे। प्रजा अन्न के अभाव में सड़ा–गला अन्न भी खा लेती थी। आचार–विचार अग्नि क्रिया सबको छोड़कर काल रूप की तरह वह शासन करता था। कुछ समय के पश्चात् राजा की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद वैदिक रीति से उसकी क्रिया भी नहीं की गई। वह राजा मृत्युपरांत यमदूतों से अनेकों प्रकार के दुःख उठाता रहा। कहीं पर लोहे की कीलों पर से चलना पड़ा तो कहीं जलते हुए अंगारों पर चलना पड़ा। जहां पर सूर्य अति तीव्र था और ना ही कोई छायादार वृक्ष था। कहीं पर वह लोहे के डंडों से पीटा गया और कहीं पर बड़े–बड़े दांतों वाले कुत्तों और भेड़ियों से कटवाया गया। इस प्रकार से दूसरे पापियों का हाहाकार सुनता हुआ वह राजा यमलोक में पहुंचा।


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