वह पांचों कन्याएं इस प्रकार विलाप करती रहीं और बहुत देर तक इंतजार करने के बाद अपने घर को लौट आईं। जब वह घर पहुंचीं तो माताओं ने उनसे इतना विलम्ब से आने का कारण पूछा तो वे सब कन्याएं कहने लगीं कि हम सब किन्नरियों के साथ क्रीड़ा करती हुई सरोवर पर थीं। इसलिए हम सब थक गई हैं और जाकर लेट गईं। मुनि वशिष्ठ जी कहने लगे कि इस प्रकार से माताओं से अपने आशय को छुपाकर विरह की मारी वे कन्याएं बिस्तर पर पड़ गईं।
वशिष्ठ जी कहने लगे कि उन लोगों ने घर पर कोई भी क्रीड़ा नहीं की। वह रात्रि उन सबको एक युग के समान लग रही थी। सूर्य के उदय होते ही वे कन्याएं अपनी माताओं की आज्ञा लेकर गौरी पूजन करने के लिए उसी स्थान पर गईं। उसी समय वह ब्राह्मण पुत्र भी स्नान करने के लिए सरोवर पर आ गया। ब्राह्मण पुत्र को देखकर वाह –वाह करने लगीं। जैसे कमलिनी प्रातःकाल के समय सूर्य को देखकर कहती हैं। उस ब्राह्मण पुत्र को देखकर उनके नेत्र खुल गए और वह सब उस ब्रह्मचारी के पास चली गईं। उसके पास पहुंचकर उन सबने उसको चारों ओर से घेर लिया और कहने लगीं कि हे मूर्ख! उस दिन तू भाग गया था, लेकिन आज नहीं भाग सकता है।
हम लोगों ने आज तुमको पकड़ लिया है।
उनकी बात सुनकर ब्राह्मण पुत्र ने मुस्कुरा कर कहा कि तुमने जो कुछ कहा है वो सब ठीक है परन्तु मैं अभी विद्याभ्यास कर रहा हूं और ब्रह्मचारी हूं। अभी मेरा विद्याभ्यास पूरा नहीं हुआ है। पंडित को चाहिए कि वह जिस आश्रम में रहे उसके धर्म का पालन करे। इस आश्रम में मैं विवाह करने को धर्म नहीं मानता। मैं अपने धर्म का पालन करके और गुरु की आज्ञा पाकर ही विवाह कर सकता हूं उससे पहले नहीं कर सकता। उसकी बात सुनकर वह कन्याएं इस प्रकार बोलीं जैसे कि वैशाख मास में कोयल बोलती हैं। वह कहने लगीं कि धर्म से अर्थ और अर्थ से काम और काम से धर्म के फल का प्रकाश होता है। ऐसा ही पंडित तथा शास्त्र कहते हैं। हम सब काम सहित धर्म की अधिकता से आपके पास आई हैं अतः आप पृथ्वी का सा भोगों को भोगिये।
ब्राह्मण पुत्र ने कहा कि मैं जानता हूं कि तुम्हारा वचन सत्य है परन्तु मैं अपने व्रत को समाप्त करके ही विवाह कर सकता हूं, पहले नहीं कर सकता। तब वे कन्याएं कहने लगीं कि तुम मूर्ख हो, अनोखी औषधि, ब्रह्म बुद्धि, रसायन सिद्धि, अच्छे कुल की सुन्दर स्त्रियां और मंत्र जिस समय प्राप्त हों उसी समय ग्रहण कर लेना चाहिए। उस कार्य को टालना नहीं चाहिए। केवल भाग्य वाले पुरुष ही प्रेम से पूर्ण, अच्छे कुल से उत्पन्न स्वयं वर चाहने वाली कन्याओं को प्राप्त होते हैं। वे कन्याएं कहने लगीं कि कहां हम अनोखी नारियां, कहां आप तपस्वी बालक, यह बेमेल का मेल मिलाने में विधाता की चतुराई ही है। इसलिए आप हम लोगों के साथ गंधर्व विवाह कर लें।
उन कन्याओं के ऐसे वचन सुनकर वह ब्राह्मण पुत्र कहने लगा कि मैं व्रती रहकर इस समय विवाह नहीं करूंगा। मैं स्वयंवर की इच्छा नहीं रखता। इस प्रकार के ब्राह्मण पुत्र के वचन सुनकर उन कन्याओं ने एक दूसरे के हाथ को छोड़कर उसको पकड़ लिया। सुशील और सुरस्वरा ने उसकी भुजाओं को पकड़ लिया, सुतारा ने आलिंगन किया और चन्द्रिका ने उसका मुख चूम लिया। उनके इस प्रकार के व्यवहार से ब्राह्मण पुत्र गुस्से में आ गया और उनको श्राप दे दिया कि तुम सब डायन की तरह मुझसे चिपटी हो अतः तुम सब पिशाचिनी हो जाओ। ऐसे श्राप मिलने पर वह सब उसको छोड़कर अलग खड़ी हो गईं।
वे कन्याएं कहने लगीं कि तुमने हम निरपराधियों को व्यर्थ में क्यों श्राप दिया। तुम्हारी धर्मज्ञता पर धिक्कार है। प्रेम करने वाले से बुराई करने वाले का सुख दोनों लोकों में नष्ट हो जाता है, इसलिए अब तुम भी हम लोगों के साथ पिशाच हो जाओ। तब वह सब आपस के क्रोध से उस सरोवर पर पिशाच और पिशाचिनी हो गए और कठिन शब्दों के साथ चिल्लाते हुए अपने कर्मों को भोगते लगे।
श्री वशिष्ठ जी कहने लगे कि हे राजन्! इस प्रकार से वह पिशाच और पिशाचिनी सरोवर के इधर–उधर फिरने लगे। कुछ समय पश्चात् मुनियों नमें श्रेष्ठ माने जाने वाले लोमश ऋषि पौष शुक्ल पक्ष चतुर्दशी को अच्छोद सरोवर पर स्नान करने के लिए आए। जब भूख से व्याकुल इन पिशाचों ने उनको देखा तो उनकी हत्या करने के लिए गोला बनाकर उनको चारो तरफ से घेर लिया। उसी समय वेदनिधि ब्राह्मण भी वहां आ गए और उन्होंने लोमश ऋषि को देखकर साष्टांग प्रणाम किया। वे पिशाच लोमश ऋषि के तेज के सामने ठहर ना सके और दूर जाकर खड़े हो गए।
वेदनिधि हाथ जोड़कर लोमश ऋषि से कहने लगे कि भाग्यवश ही ऋषियों के दर्शन प्राप्त होते हैं। उसके बाद उन्होंने गंधर्व कन्याओं और अपने पुत्र का उन्हें देकर सारा वृत्तांत कह सुनाया। वेदनिधि ने हाथ जोड़कर कहा कि हे मुनिवर! यह सब ही श्राप मोहित हो कर आपके सामने खड़े हैं। आज इन सबका निस्तार होगा। जैसे सूर्योदय होने पर अंधेरे का नाश हो जाता है। वशिष्ठ ऋषि कहने लगे कि पुत्र के दुख से दुःखी वेदनिधि ब्राह्मण के ऐसे वचन सुनकर लोमश ऋषि के नेत्रों में भी जल भर आया और वेदनिधि से कहने लगे कि मेरे प्रसाद से इन सबको शीघ्र समृति पैदा हो। मैं उनका धर्म कहता हूं जिससे कि इनका आपस का ज्ञान विलीन हो जाएगा।